“सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहहु मुनिनाथ, ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
“सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहहु मुनिनाथ,
हानि लाभ जीवन मरन जस अपजस विधि हाथ’।
(हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश व अपयश यह छह वस्तु विधि के हाथ में होती है )
अर्थात् - इस पद में तुलसीदास जी इन्हीं बातों को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि हानि, लाभ, जीवन मरण, कीर्ति-अपकीर्ति, सुख - दुख आदि विधाता के हाथ में है इसे ईश्वर का लेख समझकर बिसरा दो । करुणा के सागर भगवान् के चरणों की शरण ग्रहण करो, इसी से कल्याण होगा ।
राम के वनवास के बाद भरत जब अपने ननिहाल से लौट कर अयोध्या आए तो वहां के हालात को देख कर बहुत विचलित हुए। उन्होंने महर्षि वशिष्ठ से पूछा प्रभु आप तो संसार के सबसे श्रेष्ठ मुनि व महाज्ञानी हैं। आपने राम के राजतिलक का ऐसा मुहूर्त कैसे निकाल दिया कि महाराज दशरथ की मृत्यु हुई, राम वनवास गए और पूरी अयोध्या चौपट हो गई। यह प्रश्न सुन कर वशिष्ठ मुनि ने इस दोहे का उदहारण भरत को दिया था।
विशेष == जीव का अधिकार क्षेत्र ==== इस प्रकरण पर एक संत बड़ा ही सुन्दर विवेचन प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि "भले ही लाभ हानि जीवन, मरण ईश्वर के हाँथ हो, परन्तु हानि के बाद हम हारें न यह हमारे ही हाँथ है ," लाभ को हम शुभ लाभ में परिवर्तित कर लें यह जीव के ही अधिकार क्षेत्र में आता है " इस सन्दर्भ में आप "लाभ " के बीज मन्त्र को पढ़े ! " ॐ सौभाग्य प्रदाय धन धान्य युक्ताय लाभाय नमः " इस का तात्पर्य है की लाभ अगर सौभाग्य प्रदाय (शुभ ) है यानि परोपकार का भाव ध्यान में रखकर , नेक कार्य से ईमानदारी से अपने हक़ का कमाया हुआ "लाभ" कभी हानि नहीं होने देता है और यह अपरोक्ष रूप में मनुष्य के हाथ में है !
२. "जीवन जितना भी मिले उसे हम कैसे जियें" यह सिर्फ जीव अर्थात हम ही तय करते हैं, मरण अगर प्रभु के हाँथ है, तो उस परमात्मा का स्मरण हमारे अपनें हाँथ है "
जीव का अधिकार क्षेत्र == यदि आप अहिंसा के पुजारी है और आचरण से अहिंसक है तो निश्चित जानिये आप कभी अल्पायु नहीं हो सकते है और " मरण " ,,,,,,,,
१. शांति पूर्वक होगा !
२. यदि प्रभु का स्मरण करते हुए मरण होगा तो मरणोपरांत परलोक में स्थान भी आपकी इच्छानुसार मिलेगा !
३. यदि आपके पाप साथ के साथ काट रहे है और पुण्य बढ़ रहे है तो समझिये आप यमलोक नहीं जाएंगे सीधे अपने इष्टदेव के लोक अथवा मोक्ष को प्राप्त होंगे ( परमात्मा में विलय )
<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<
२. मार्गशीर्ष मास ,,,,,,,,
(स्कन्दपुराण वैष्णवखण्ड)
मम नाम प्रवक्तव्यं सहे चैव विशेषतः ।
कृष्णकृष्णेति वक्तव्यं मम प्रीतिकरं परम् ।।
कृष्णकृष्णेति कृष्णेति यो मां स्मरति नित्यशः ।
जलं भित्त्वा यथा पद्मं नरकादुद्धराम्यहम्।।
अगहन (#मार्गशीर्ष) के महीने में विशेषरूप से #कृष्ण-कृष्ण कहकर मेरा नाम लेना चाहिए। यह मुझे अत्यंत प्रसन्न करने वाला है।
जो ‘हे कृष्ण! हे कृष्ण!! हे कृष्ण!!!’ ऐसा कहकर मेरा प्रतिदिन स्मरण करता है, उसे जिस प्रकार कमल जल को भेदकर ऊपर निकल आता है, उसी प्रकार मैं नरक से निकाल लाता हूँ।
ब ,,,,,,,
नीराजनं तु यः पश्येत्सहोमासे ममाऽग्रतः ।।
सप्तजन्म भवेद्विप्रो ह्यंते च परमं पदम् ।। ३५ ।।
जो अगहन (मार्गशीर्ष) के महीने में मेरे आगे होती हुई आरती का दर्शन करता है, वह सात जन्म विप्र होकर अंत में परम पद को प्राप्त होता है।
यः करोति सहोमासे कर्पूरेण च दीपकम् ।।
अश्वमेधमवाप्नोति कुलं चैव समुद्धरेत् ।। ३८ ।।
जो मार्गशीर्ष मास में कपूर से दीपक जलाकर मुझे अर्पण करता है, वह अश्वमेघ यज्ञ का फल पाता और अपने कुल का उद्धार कर देता है।
🌹🌹