नाभि में अमृत
श्रीराम जी ने विभीषण जी के कहने पर रावण की नाभि में तीर मारकर उसका वध किया था। रावण की नाभि में अमृत कुंड का रहस्य रावण वध (रावण के नाभि में अमृतकुंड का रहस्य) क्या था ?
ये बात नाभि के कुंडलिनी चक्र की निर्भय शक्ति संबंधित है। रावण का नाभि (भाव शरीर) चक्र सक्रिय था। रावण नाभि चक्र की शक्ति की वजह से निर्भय (अभय) हो चुका था। भय का स्थान नाभि में होता है। जिनका नाभि चक्र कमजोर होता है वो भयभीत जल्दी होते है, छोटी-2 बात पर जल्दी भयभीत या डर जाते है और जिनका नाभि चक्र मजबूत होता है वो निर्भय (अभय) हो जाते है। काफी बार देखा या महसूस किया होगा कि जब आप या कोई अचानक भयभीत होता है तो उसको पेशाब या दस्त निकल जाते है। क्योंकि नाभि या पेट एकदम उस भय के दबाव को सहन नही कर पाता और अपने आप को खाली करने के लिए सक्रिय हो जाता है।
जब कोई भयभीत या डरा हुआ होता है तो उसके चहरे का रंग उड़ जाता है, ये रंग उड़ना भाव शरीर ही है जो आप के भाव दिखाता है। एक चीज और देखी होगी जब आप या अन्य कोई व्यक्ति चिंता में होता है तो उसे भूख भी नही लगेगी। क्योंकि चिंता भी भय का ही रूप है। और जब नाभि स्थान (पेट) चिंता भय या डर से भरा होगा तो पेट को भूख भी नही लगेगी। जैसे ही चिंता खत्म होती है तो पेट भय या डर से खाली हो जाता है और भोजन खाने की इच्छा होती है। मगर यदि नाभि चक्र को ध्यान द्वारा मजबूत किया जाए तो कोई भी चीज, कोई भी बात, कोई भी घटना या कोई भी स्तिथि उसको डरा ही नही सकती और वो उनपर विजय करता हुआ आगे बढ़ जाता है। रावण ने भी नाभि कुंडलिनी चक्र को मजबूत बना लिया था। जिसकी वजह से श्रीरामचन्द्र जी द्वारा चलाये गए किसी भी अस्त्र- शस्त्र से रावण भयभीत नही हुआ और कुंडलिनी चक्र से मिली निर्भर (अभय) शक्ति से सम्पन व्यक्ति तो मौत को भी हरा सकता है।
ये बात विभीषण जी को पता थी, जिस कारण उन्होंने श्रीराम जी को रावण की नाभि का छेदन करने के लिए कहा, जिससे रावण के नाभि चक्र की सारी शक्ति नष्ट हो जाये। और रावण भयभीत होकर हार जाए और उसकी मृत्यु हो जाये। बस यही रहस्य और कुंडलिनी विज्ञान था रावण की नाभि के अमृतकुंड का जो निर्भयता (अभय) शक्ति से भरा हुआ था।
इसी शक्ति के बल पर वो त्रिलोक-विजेता बना था लेकिन जैसे ही निडरता की शक्ति गई वैसे ही रावण की मृत्यु भी हो गई।
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भवसागर से पार होने के लिये मनुष्य शरीर रूपी सुन्दर नौका मिल गई है। सतर्क रहो कहीं ऐसा न हो कि वासना की भँवर में पड़कर नौका डूब जाय।
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स्वयं कमाओ, स्वयं खाओ यह प्रकृति है । (रजो गुण)
दूसरा कमाए, तुम छीन कर खाओ यह विकृती है।(तमो गुण )
स्वयं कमाओ सबको खिलाओ, यह देविक संस्कृति हैं ! (सतो गुण )
** देविक प्रवृतियों को धारण (Perception ) करे तभी आप देवलोक पाने के अधिकारी बनेंगे **
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