दक्षिणायन सूर्य ,,,,
(उत्तरायण मेँ मृत्यु का अर्थ है ज्ञान की अथवा उत्तरावस्था मेँ परिपक्व दशा मेँ मृत्यु ।
दक्षिण दिशा मेँ यमपुरी है , नरक लोक है । नरक लोक का अर्थ है अंधकार । जिन्हेँ परमात्मा के स्वरुप का ज्ञान नहीँ है , जिन्होँने परमात्मा का अनुभव नहीँ किया है और वैसे ही मर जाते हैँ उनकी मृत्यु दक्षिणायन कहलाती है ।)
ज्योतिष की दृष्टि में ,,,,,
एक वर्ष में दो अयन होते हैं. अर्थात एक साल में दो बार सूर्य की स्थिति में परिवर्तन होता है और यही परिवर्तन या अयन ‘उत्तरायण और दक्षिणायन’ कहा जाता है. कालगणना के अनुसार जब सूर्य मकर राशि से मिथुन राशि तक भ्रमण करता है, तब तक के समय को उत्तरायण कहते हैं. यह समय छ: माह का होता है. तत्पश्चात जब सूर्य कर्क राशि से सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, और धनु राशि में विचरण करता है तब इस समय को दक्षिणायन कहते हैं. इस प्रकार यह दोनो अयन 6-6 माह के होते हैं.
शास्त्रों के अनुसार, दक्षिणायन को नकारात्मकता का प्रतीक तथा उत्तरायण को सकारात्मकता का प्रतीक माना गया है. इन दिनों में किए गए जप, तप, दान, स्नान, श्राद्ध, तर्पण आदि धार्मिक क्रियाकलापों का विशेष महत्व होता है. इस अवसर पर किया गया दान सौ गुना फल प्रदान करता है. सौरमास का आरम्भ सूर्य की संक्रांति से होता है. सूर्य की एक संक्रांति से दूसरी संक्रांति का समय सौरमास कहलाता है. सौर-वर्ष के दो भाग हैं- उत्तरायण छह माह का और दक्षिणायन भी छह मास का होता है !
दक्षिणायन क्या हैं और उसका महत्व क्या हैं?
श्रावण संक्रांति में सूर्य कर्क राशि में प्रवेश करेंगे| संक्रांति के पुण्य काल समय दान, जप, पूजा पाठ इत्यादि का विशेष महत्व होता है इस समय पर किए गए दान पुण्य का कई गुना फल प्राप्त होता है| ऐसे में शंकर भगवान की पूजा का विशेष महत्व माना गया है|
सूर्य का एक राशि से दूसरा राशि में प्रवेश संक्रांति कहलाता है| सूर्य का कर्क राशि में प्रवेश ही ‘कर्क संक्रांति या श्रावण संक्रांति कहलाता है| श्रावण से पौष मास तक सूर्य का उत्तरी छोर से दक्षिणी छोर तक जाना दक्षिणायन होता है|शात्रों एवं धर्म के अनुसार उत्तरायण का समय देवतायओं का दिन तथा दक्षिणायन देवताओं की रात्री होती है| इस प्रकार, वैदिक काल से उत्तरायण को देवयान तथा दक्षिणायन के पितृयान कहा जाता रहा है|
सावन संक्रांति समय काल में सूर्य पितरों का अधिपति माना जाता है| सावन संक्रांति अर्थात कर्क संक्रांति से वर्षा ऋतु का आगमन हो जाता है| देवताओं की रात्रि प्रारम्भ हो जाती है और चातुर्मास या चौमासा का भी आरंभ इसी समय से हो जाता है| यह समय व्यवहार की दृष्टि से अत्यधिक संयम का होता है क्योंकि इसी समय तामसिक प्रवृतियां अधिक सक्रिय होती हैं| व्यक्ति का हृदय भी गलत मार्ग की ओर अधिक अग्रसर होता है अत: संयम का पालन करके विचारों में शुद्धता का समावेश करके ही व्यक्ति अपने जीवन को शुद्ध मार्ग पर ले जा सकने में सक्षम हो पाता है|
पुण्यात्माओं के लिए उत्तरायण मार्ग है…. भीष्म पितामह ने उत्तरायण होने तक प्राण रोक के रखे…लेकिन पापियों के लिए क्या उत्तरायण और क्या दक्षिणायन..उन को कोई फरक नही पङता..
धर्मात्मा के लिए शरीर छोड़ते तो सूर्य लोक चन्द्र लोक को प्राप्त होते…लेकिन पापी लोग मरते तो वासनाओ के अनुसार गीध बन जाते…कबूतर बन गए ….शरीर मिला तो ठीक नही तो नाली में बहे गए… ऐसे पापी के दुखो की गिनती नही…
जिन की वासनाओ की पूर्ण तृप्ति नही हुयी ऐसे धर्मात्मा लोग दक्षिणायन में प्राण छोड़ते तो भी चंद्रलोक में जाते… चन्द्र लोक से फिर वापस आते और अपनी वासनाओ के अनुसार जनमते…
उत्तरायण में सूर्य के प्रवेश का अर्थ कितना गहन है और आध्यात्मिक व धार्मिक क्षेत्र के लिए कितना पुण्यशाली है, इसका अंदाज सिर्फ भीष्म पितामह के उदाहरण से लगाया जा सकता है। महाभारत युग की प्रामाणिक आस्थाओं के अनुसार सर्वविदित है कि उस युग के महान नायक भीष्म पितामह शरीर से क्षत-विक्षत होने के बावजूद मृत्यु शैया पर लेटकर प्राण त्यागने के लिए सूर्य के उत्तरायण में प्रवेश का इंतजार कर रहे थे।
मत्स्य पुराण और स्कंद पुराण में मकर संक्रांति के बारे में विशिष्ट उल्लेख मिलता है। मत्स्य पुराण में व्रत विधि और स्कंद पुराण में संक्रांति पर किए जाने वाले दान को लेकर व्याख्या प्रस्तुत की गई है। यहाँ यह जानना जरूरी है कि इसे मकर संक्रांति क्यों कहा जाता है? मकर संक्रांति का सूर्य के राशियों में भ्रमण से गहरा संबंध है। वैज्ञानिक स्तर पर यह पर्व एक महान खगोलीय घटना है और आध्यात्मिक स्तर पर मकर संक्रांति सूर्यदेव के उत्तरायण में प्रवेश की वजह से बहुत महत्वपूर्ण बदलाव का सूचक है। सूर्य 6 माह दक्षिणायन में रहता है और 6 माह उत्तरायण में रहता है।
परंपरागत आधार पर मकर संक्रांति प्रति वर्ष 14 जनवरी को पड़ती है। पंचांग के महीनों के अनुसार यह तिथि पौष या माघ मास के शुक्ल पक्ष में पड़ती है। 14 जनवरी को सूर्य प्रति वर्ष धनु राशि का भ्रमण पूर्ण कर मकर राशि में प्रवेश करते हैं। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार मकरराशि बारह राशियों में दसवीं राशि होती है। संक्रांति का अर्थ है बदलाव का समय। संक्रांति उस काल को या तिथि को कहते हैं, जिस दिन सूर्य एक राशि में भ्रमण पूर्ण कर दूसरी राशि में प्रवेश करता है। इसे पुण्यकाल माना जाता है और संक्रमण काल के रूप में भी स्वीकारकिया जाता है।
मृत्यु ,,,,,,,
संतो का जन्म तो
हमारी ही भाँति साधारण होता है किन्तु उनकी मृत्यु
मंगलमय होती है। साधन भक्ति करते करते ही साध्य भक्ति सिद्ध होती है ।
जिसकी मृत्यु के समय देवगण बाजे बजाते हैँ उसकी मृत्यु मंगलमय है । भीष्म के प्रयाण के समय देवोँ ने ऐसा ही किया था । ऐसे काम करना चाहिए >
जब तुम आये जग मेँ , तो वह हँसा तुम रोए ।
ऐसी करनी कर चलो , तुम हँसो जग रोए ।।
मानव जीवन की अन्तिम परीक्षा उसकी
मृत्यु ही है । जिसका जीवन सुन्दर होगा , उसकी
मृत्यु मंगलमय होगी । जिसका मरण बिगड़ा उसका जीवन
भी व्यर्थ रहा । मरण तब सुधरता है जब मानव प्रत्येक क्षण को
सुधारता है ।
जो प्रत्येक क्षण का सदुपयोग करता है ईश्वर को प्रतिक्षण स्मरण करता है
उसकी मृत्यु भी सुधरती है किन्तु जो प्रत्येक
क्षण का दुरुपयोग करता है ईश्वर का स्मरण नहीँ करता
उसकी मृत्यु बिगड़ती है ।
भीष्म आजीवन संयमी रहे थे संयम बढ़ाकर प्रभू
के सतत स्मरण की आदत होने से मरण सुधरेगा । जीवन का
अंतकाल बड़ा कठिन है । उस समय प्रभू का स्मरण करना आसान नहीँ
है ।
जन्म जन्म मुनि जतन कराहीँ
अंत राम कहि आवत नाही ।।
समस्त जीवन जिसकी लगन मेँ बीता होगा वही अंतकाल मेँ उसे याद आयेगा । ईश्वर तब तक कृपा नहीँ करते जब तक मनुष्य स्वयं कोई प्रयत्न न करे । सारा जीवन भगवान के स्मरण मेँ बीते और कदाचित वह अंतकाल मेँ भगवान को भूल जाय तो भी भगवान उसे याद करेँगे ।
भगवान कहते है कि भक्त मुझे भले ही भूल जाय किन्तु मै उसको नहीँ भूल सकता है ।।
अतः भीष्मपितामह की मृत्यु को उजागर करने के लिए ही द्वारिकाधीश भीष्म के पास पधारे थे ।
विशेष ,,,,, आजकल दक्षिणायन चल रहा है ! ( जब से सूर्य कर्क राशि में आया है एवं जब तक सूर्य मकर राशि में प्रवेश करेगा ) भ्र्ष्ट व्यक्ति , अनुचित एवं अनैतिक आचरण करने वाले व्यक्ति अथवा धर्मात्मा भी जिनकी बुद्धि तामसिक हो चुकी है और उन्होंने थोड़े समय के लिए नरक के भोग भोगने है वे दक्षिणायन में मृत्यु को प्राप्त होते है ! मेरे अनुभव में पापी लोग भी जिनकी बुद्धि एव मन में सत्वगुण शेष बचे है और उन्होंने अभी अपने पुण्य कर्मो का भोग करना है वे पापी होते हुए भी उत्तरायण में ही मृत्यु को प्राप्त होते है और थोड़े समय के बाद अपने पापों के अनुसार दक्षिणायन में मृत्यु को प्राप्त होते है !
* विधाता लिखता है, चित्रगुप्त बांचता है, यमदूत पकड़कर लाते हैं और यमराज दंड देते हैं। मृत्य का समय ही नहीं, स्थान भी निश्चित है। दस दिशाओं में से एक दक्षिण दिशा में यमराजजी बैठे हैं। यमराजजी कौन है !
आध्यात्मिक विचारों वाले सतोगुणी प्राणी मृत्योपरांत देवलोक जाते है अथवा मोक्ष को प्राप्त होते है !
आज मनुष्य जाति की सोच इतनी अधिक तामसिक हो गयी है की वह अपने परलोक के बारे में बिलकुल भी ज्ञान अर्जित नहीं करता एवं इस सम्बन्ध में विचार भी नहीं करता !
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