अष्टावक्र गीता ,,,,,,,,
राजा जनक स्वयं ज्ञानी थे; किन्तु उन्हें ज्ञान किसी गुरु से प्राप्त नहीं हुआ था । उनका मानना था कि जैसे ज्ञान के बिना मोक्ष नहीं हो सकता, उसी प्रकार सद्गुरु से सम्बन्ध हुए बिना ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती है । गुरु इस भवसागर को पार कराने वाले नाविक व उनका ज्ञान नौका के समान है ।
अत: 'ज्ञानी राजा' जनक ने 'ज्ञानी गुरु' की खोज के लिए राज्य में घोसणा करवा दी कि जो कोई मुझे 'ज्ञान' का उपदेश देगा, उसे मनमाना धन दिया जाएगा और यदि वह मुझे ज्ञान का उपदेश न दे सका तो उसे बंदी-गृह में रहना होगा । लेकिन उसे बंदी-गृह की यातना नहीं भुगतनी होगी; बल्कि सुख के सभी साधन भोगने होंगे ।
घोषणा सुन कर बहुत-से ज्ञानी राजा जनक की सभा में पहुंचे; परन्तु 'सच्चा ज्ञान' न दे पाए और उन्हें बंदी-गृह में सुखोपभोग के लिए जाना पड़ा ।
एक बार ऋषिकुमार अष्टावक्र के पिता भी धन के लोभ में राजा जनक की सभा में पहुंचे; परन्तु उन्हें भी हार मान कर बंदी-गृह में बंद होना पड़ा । अष्टावक्र को जब यह बात पता चली तो वे राजा जनक की सभा में पहुंचे । राज-दरबार में दरबारी सुन्दर पोशाक व आभूषणों में सज-धज कर बैठे थे और राजा जनक राजसी ठाट-बाट से अपने सिंहासन पर विराजमान थे । ऋषिकुमार अष्टावक्र के अंग आठ स्थानों पर टेढ़े थे ।
मनुष्य की यह दुर्बलता है कि वह ब्रह्मा के विधान में अपनी टांग अड़ाता है । अष्टावक्र के टेढ़े-मेढ़े शरीर को देखकर सभासदों की हंसी से राजा जनक की सभा गूंजने लगी । जहां 'ज्ञान' की चर्चा के लिए सभा जुड़ी हो, वहां शरीर की बनावट देखकर हंसना मनुष्य की 'मानवता' नहीं; वरन् ' दुर्बलता ' कही जाएगी । अष्टावक्र ज्ञान की चर्चा कर विजय प्राप्त करने आए थे; इसलिए वे सभासदों के व्यवहार से विचलित नहीं हुए; क्योंकि ज्ञानियों के लिए मान-अपमान सब समान होता है । अष्टावक्र ने सभासदों की हंसी का उत्तर और अधिक ठहाकों की हंसी से दिया ।
अष्टावक्र को इतनी जोर से हंसते देखकर राजा जनक ने उनसे कहा-'ऋषिकुमार ! आप क्यों हंस रहे हैं ?'
अष्टावक्रजी ने कहा-'यह प्रश्न तो मुझे आपसे करना चाहिए; क्योंकि आप लोग मेरे दरबार में पहुंचते ही हंसे थे ।'
राजा जनक ने कहा-'आपके टेढ़े-मेढ़े शरीर को देखकर हम लोगों को हंसी आ गई, आपको दु:ख नहीं मानना चाहिए; परन्तु आप क्यों इतनी जोर से हंसे ?'
अष्टावक्र ने कहा-'मुझे तो आप लोगों के "आंतरिक शरीर" यानि आपकी सोच को देख कर हंसी आई । इतने सुन्दर शरीरों के अंदर कितनी कलुषता भरी पड़ी है ? ज्ञानी राजा जनक जिनकी सभा में 'ज्ञान' की चर्चा होनी है, उनके सभासद तथा स्वयं वे भी शरीर के रंग, रूप व बनावट के प्रेमी हैं । उनके यहां 'ज्ञान' की नहीं, 'नश्वर शरीर' की महत्ता है ।'
यह सुन कर दरबार में सभी स्तब्ध रह गए ।
रात्रि में अष्टावक्रजी को राजा जनक के अंत:पुर में ठहराया गया और खूब सत्कार किया गया । किंतु राजा जनक की आंखों में नींद कहां ? ऋषिकुमार अष्टावक्र की बातें उनके मस्तिष्क में झंझावात उत्पन्न कर रही थीं और उन्हें बेचैन कर रही थीं ।
राजा जनक रात्रि में ही अष्टावक्रजी के पास जाकर बोले-'ऋषिकुमार ! मुझे पूर्ण विश्वास हो गया है कि आप मुझे 'सच्चा ज्ञान' प्रदान कर सकते हैं ।'
अष्टावक्रजी ने कहा-'ज्ञान प्रदान करने के लिए मुझे गुरु दक्षिणा चाहिए ।'
राजा जनक ने कहा-'आप मेरा पूरा खजाना ले लीजिए; परन्तु मुझे ज्ञान प्रदान कीजिए ।'
अष्टावक्रजी ने कहा-'यह खजाना तो राज्य का है, इस पर आपका कोई हक नहीं है । मुझे तो आपअपना मन गुरु दक्षिणा में दीजिए ।'
राजा जनक ऐसा करने को राजी हो गए ।
अष्टावक्रजी ने कहा-'मैं एक सप्ताह बाद आकर तुम्हें 'ज्ञान' प्रदान करुंगा; परन्तु यह याद रखना कि आपने अपना मन मुझे संकल्प कर दिया है ।'
इसके बाद अष्टावक्रजी अपने पिता को बंदी-गृह से छुड़ा कर घर पहुंचा आए ।
इधर राजा जनक की दशा बड़ी विचित्र हो गई । चलते-फिरते, खाते-सोते उन्हें यही ध्यान रहता कि उनके मन का संकल्प हो गया है । इसी चिन्ता में उनकी सभी क्रियाएं शांत हो गईं । एक सप्ताह बाद अष्टावक्रजी ने आकर जब राजा जनक से कुशल पूछी तो राजा जनक ने उत्तर दिया-'मेरी कुशलता तो अब आपके अधीन है, मन तो आपका हो चुका है और अब मैं जड़वत् हो चुका हूँ; किंतु मुझे इसी में परम शांति मिल रही है ।'
अष्टावक्रजी ने कहा-'इस जड़ता को तुम आत्मज्ञान के पास ले जाने वाली जड़ता समझो; क्योंकि अब तुम ज्ञान प्राप्त करने के योग्य हो गए हो ।'
अष्टावक्रजी ने कहा==
" सांसारिक भोग मन के अधीन हैं । मन ही देही है, आत्मा विदेही है । मन जब-तक शरीर की ओर लगा रहता है, तब तक उसकी गति आत्मा की ओर नहीं हो पाती है । मनुष्य जब मन को ज्ञान के अधीन कर देता है; तब वह आत्मा की ओर बढ़ने लगता है और धीरे-धीरे सभी बंधनों से मुक्त होकर जीव सत्-चित्-आनंद बन जाता है । यह शरीर पंचकोशों से बना होता है । अन्न से इसकी उत्पत्ति होती है, इसलिए इसे 'अन्नमय कोश' भी कहते हैं । इसके भीतर 'प्राणमय कोश' है, उसके भीतर 'मनोमय कोश' और उसके बाद 'विज्ञानमय कोश' है । विज्ञानमय कोश के बाद ' आनंदमय कोश' है । आनंदमय कोश में प्रवेश करते ही शरीर को सुख-दु:ख के झंझटों से छुटकारा मिल जाता है । इसके ऊपर है सर्वव्यापक 'आत्मा' । शरीर पर ज्ञान की सत्ता स्थापित होने पर ही 'आत्मा' (परमात्मा ) की प्राप्ति होती है ।"
' हे राजा जनक ! अब मैं इस ज्ञान के साथ आपका मन आपको वापिस कर रहा हूँ । अब मेरे आदेश से ज्ञान के अधीन होकर इस राज्य का संचालन कीजिए । अष्टावक्र जी ने आगे कहा==
" समस्त जीवों में अपनी आत्मा का अनुभव कीजिए ।"
सबसे परे होकर रहिए ।'राजा जनक को 'ज्ञान' देकर अष्टावक्रजी चले गए और उस ज्ञान को धारण कर राजा जनक 'देही' से 'विदेही' बन गए । राजा जनक और ऋषि अष्टावक्र के बीच का संवाद 'अष्टावक्र गीता' के नाम से जाना जाता है ।
परामर्श ,,,,,एक माटी का दिया रात भर अंधेरों से लड़ता है तू तो प्रभु की रचना है आदि व्याधि और मुश्किलों से क्यों डरता है !
जीवन में ध्यान देना की ==
जब हमारे सत्कर्म बढ़ते है और सद्गुरु की कृपा होती है तो अंतःकरण में श्री राम का वास होता है और मुख से वाणी निकलती है,,,,,,, " राम राम " !
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भवसागर से पार होने के लिये मनुष्य शरीर रूपी सुन्दर नौका मिल गई है।
सतर्क रहो कहीं ऐसा न हो कि वासना की भँवर में पड़कर नौका डूब जाय।
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अपने अन्तःकरण में परोपकार की पवित्र भावना उत्पन्न करने के लिए गाय का दूध पीए, मक्खन, घृत , ऋतु फल खाये, सूखे मेवे, शहद, गन्ना एवं जेविक खाद से उत्पन्न अन्न ( सत्व गुण युक्त )खाये जिससे आपका मन देविक विचार उत्पन्न करे l आप भाग्यशाली है कि ये ज्ञान ( पवित्र गीता अध्याय १४ वर्णित " सृष्टि त्रिगुणात्मक == सत्व, रज, तामस ) केवल सनातन धर्म के पवित्र ग्रंथो में लिपिबद्ध है l दुनिया के और किसी धर्म के पास नहीं है l अतः अपने आप को गौरवांवित महसूस करें l
इस प्रकार आप नरक जाने से बच सकते हैं l
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स्वयं कमाओ, स्वयं खाओ यह प्रकृति है । (रजो गुण)
दूसरा कमाए, तुम छीन कर खाओ यह विकृती है।(तमो गुण )
स्वयं कमाओ सबको खिलाओ, यह देविक संस्कृति हैं ! (सतो गुण )
** देविक प्रवृतियों को धारण करे तभी आप देवलोक पाने के अधिकारी बनेंगे **
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*अवश्यं यातारश्चिरतरमुषित्वापि विषया,*
*वियोगे को भे दस्त्यजति न जनो यत्स्वयममून्।*
*व्रजन्त: स्वातंत्र्यादतुलपरितापाय मनस:*
*स्वयं त्यक्ता ह्ये शमसुखमनन्तं विदधति ।।*
*भावार्थ -* सांसारिक विषय एक दिन हमारा साथ छोड़ देंगे, यह एकदम सत्य है। उन्होंने हमको छोड़ा या हमने उन्हें छोड़ा, इसमें क्या भेद है ? दोनों एक बराबर हैं। अतएव सज्जन पुरुष स्वयं उनको त्याग देते हैं। स्वयं छोड़ने में ही सच्चा सुख है, बड़ी शान्ति प्राप्त होती है।
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हमेशा ध्यान में रखिये ---
" आप एक शुद्ध चेतना है यानि स्व ऊर्जा से प्रकाशित आत्मा ! माया (अज्ञान ) ने आपकी आत्मा के शुद्ध स्वरुप को छीन रखा है ! अतः माया ( अज्ञान ) से पीछा छुडाइये और शुद्ध चेतना को प्राप्त कर परमानन्द का सुख भोगिए !
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सत्कर्म करते रहना ही सही अर्थों में,,, जीवन से प्रेम,, है !
मंगलकामना : प्रभु आपके जीवन से अन्धकार (अज्ञान )को मिटायें एवं प्रकाश (ज्ञान )से भर दें !
( मनुष्य पद की गरिमा को क्यों खोता है और उसके क्या परिणाम होते है ?
उत्तर -- मनुष्य पद की गरिमा को तामसिक प्रवृतियों ( वासना , लालच एवं अहंकार ) के आधीन होने के कारण खोता है ! पवित्र गीता के अनुसार ये प्रवृतिया नरक का द्वार है ! हमारे मत में ये प्रवृतिया हमारे जीवन में तामस के उदय का आरम्भ है और यही तामस मानवो के जीवन में अज्ञानता , जड़ता एवं मूढ़ता के उदय का कारण है जो हमें नरक लोक ले जाने में सक्षम है ! अतः भ्रष्टाचार से बचो यानि पद की गरिमा को मत खोओ ! कोई भी पद या सम्मान (गरिमा ) इस जन्म में (पूर्व में संचित ) पुण्य कर्मो की देन है !पुण्य कर्मो के ह्यास के साथ ही गरिमा भी समाप्त हो जाती है और मानव को फिर अनेक योनियों में भटकना पड़ता है )
नोट,,,,, यदि आपके मन में आसुरी/तामसिक विचारों का उत्पादन अधिक हो रहा है और आप अनुचित एवं अनेतिक कर्म में प्रवृत्त होते जा रहे हो तो इस सत्य को स्वीकार कीजिए की आप पापों के वेग को नियंत्रित नहीं कर पा रहे हो ऎसे में आप सारे कार्य बंद कर के तीर्थयात्रा पर चले जाय l इसे से आप उस स्थान को कुछ समय के लिए छोड़ दोगे जहां पाप कर रहे हैं l 2. आप अपने देवता की श्रद्धा भक्ति में ध्यान लगा सकते हो l 3. आप को कुछ समय के लिए अपने जीवन के बारे में सोचने का समय मिलेगा l
धर्मशील व्यक्ति ,,,,,,,
जिमि सरिता सागर महँ जाहीं l
जद्यपि ताहि कामना नाहीं ll
तिमि सुख सम्पति बिनहिं बुलाये l
धर्मशील पहँ जाइ सुहाये ll
जैसे सरिता (नदी ) उबड-खाबड़, पथरीले स्थानों को पार करते हुए पूर्ण रूपेण निष्काम भाव से समुद्र में जा मिलती है, उसी प्रकार धर्म-रथ पर आसीन मनुष्य के पास उसके न चाहते हुए भी समस्त सुख-सम्पत्ति, रिद्धियाँ-सिद्धियाँ स्वत: आ जाती हैं, सत्य तो यह है कि वे उसकी दासिता ग्रहण करने के लिए लालायित रहती है !
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,,,,सच्चे संतो की वाणी से अमृत बरसता है , आवश्यकता है ,,,उसे आचरण में उतारने की ....
जिस प्रकार मैले दर्पण में सूर्य देव का प्रकाश नहीं पड़ता है उसी प्रकार मलिन अंतःकरण में ईश्वर के प्रकाश का प्रतिबिम्ब नहीं पड़ता है अर्थात मलिन अंतःकरण में शैतान अथवा असुरों का राज होता है ! अतः ऐसा मनुष्य ईश्वर द्वारा प्रदत्त " दिव्यदृष्टि " या दूरदृष्टि का अधिकारी नहीं बन सकता एवं अनेको दिव्य सिद्धियों एवं निधियों को प्राप्त नहीं कर पाता या खो देता है !
" जीवन का सत्य आत्मिक कल्याण है ना की भौतिक सुख !"
"सत्य वचन में प्रीति करले,सत्य वचन प्रभु वास।
सत्य के साथ प्रभु चलते हैं, सत्य चले प्रभु साथ।। "
"एक माटी का दिया सारी रात अंधियारे से लड़ता है,
तू तो प्रभु का दिया है फिर किस बात से डरता है..."
हे मानव तू उठ और सागर (प्रभु ) में विलीन होने के लिए पुरुषार्थ कर ,,,,,,,
शरीर परमात्मा का दिया हुआ उपहार है ! चाहो तो इससे " विभूतिया " (अच्छाइयां / पुण्य इत्यादि ) अर्जित करलो चाहे घोरतम " दुर्गति " ( बुराइया / पाप ) इत्यादि !
परोपकारी बनो एवं प्रभु का सानिध्य प्राप्त करो !
प्रभु हर जीव में चेतना रूप में विद्यमान है अतः प्राणियों से प्रेम करो !
शाकाहार अपनाओ , करुणा को चुनो !