वराह अवतार की कथा 1
एक बार 2 राक्षस थे। जिनके नाम हिरण्याक्ष तथा हिरण्यकश्यपु थे।
इन दोनों ने ब्रह्मा की तपस्या की।उनके तप से ब्रह्मा जी प्रसन्न हुए। उन्होंने प्रकट होकर कहा, ‘तुम्हारे तप से मैं प्रसन्न हूं। वर मांगो, क्या चाहते हो?
हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु ने उत्तर दिया,’प्रभो, हमें ऐसा वर दीजिए, जिससे न तो कोई युद्ध में हमें पराजित कर सके और मानव जाती का कोई ना मार सके।’ ब्रह्माजी ‘तथास्तु’ कहकर अपने लोक में चले गए।
इन्होने सोचा की हम अमर हो गए है मन में जो आएगा वो करेंगे। वह तीनों लोकों में अपने को सर्वश्रेष्ठ मानने लगा। यहाँ तक की भगवान विष्णु को भी अपने से छोटा मानने लगे। हिरण्याक्ष ने गर्वित होकर तीनों लोकों को जीतने का विचार किया। वह हाथ में गदा लेकर इन्द्रलोक में जा पहुंचा। देवताओं को जब उसके पहुंचने की ख़बर मिली, तो वे भयभीत होकर इन्द्रलोक से भाग गए। इन्द्रलोक पर हिरण्याक्ष ने कब्ज़ा कर लिया। जब इन्द्रलोक में युद्ध करने के लिए कोई नहीं मिला, तो हिरण्याक्ष वरुण की राजधानी विभावरी नगरी में जा पहुंचा। उसने वरुण के समक्ष उपस्थित होकर कहा,’वरुण देव, आपने दैत्यों को पराजित करके राजसूय यज्ञ किया था।
आज आपको मुझे पराजित करना पड़ेगा। कमर कस कर तैयार हो जाइए, मेरी युद्ध की प्यास को मिटाइये।’
हिरण्याक्ष की बात सुनकर वरुण के मन में रोष तो उत्पन्न हुआ, किंतु उन्होंने भीतर ही भीतर उसे दबा दिया। वे बड़े शांत भाव से बोले,’तुम महान योद्धा और शूरवीर हो।तुमसे युद्ध करने के लिए मेरे पास शौर्य कहां? तीनों लोकों में भगवान विष्णु को छोड़कर कोई भी ऐसा नहीं है, जो तुमसे युद्ध कर सके। अतः उन्हीं के पास जाओ। वे ही तुम्हारी युद्ध पिपासा शांत करेंगे।’
वरुण देव की बात सुनकर उस राक्षस ने देवर्षि नारद के पास जाकर नारायण का पता पूछा। देवर्षि नारद ने उसे बताया कि नारायण इस समय वाराह का रूप धारण कर पृथ्वी को रसातल से निकालने के लिये गये हैं। इस पर हिरण्याक्ष रसातल में पहुँच गया। वहाँ उसने देखा भगवान वाराह अपने दाढ़ पर रख कर पृथ्वी को लाते हुये देखा।
उस महाबली दैत्य ने वाराह भगवान से कहा, “अरे जंगली पशु! तू जल में कहाँ से आ गया है? मूर्ख पशु! तू इस पृथ्वी को कहाँ लिये जा रहा है? इसे तो ब्रह्मा जी ने हमें दे दिया है। रे अधम! तू मेरे रहते इस पृथ्वी को रसातल से नहीं ले जा सकता। तू दैत्य और दानवों का शत्रु है इसलिये आज मैं तेरा वध कर डालूँगा।” वह कभी उन्हें निर्लज्ज कहता, कभी कायर कहता और कभी मायावी कहता, पर भगवान विष्णु केवल मुस्कराकर रह जाते।
उन्होंने रसातल से बाहर निकलकर धरती को समुद्र के ऊपर स्थापित कर दिया। हिरण्याक्ष उनके पीछे लगा हुआ था। अपने वचन-बाणों से उनके हृदय को बेध रहा था। भगवान विष्णु ने धरती को पानी से भर ले आये और तब हिरण्याक्ष की ओर ध्यान दिया।
लेकिन हिरण्याक्ष अब भी भगवान को अपशब्द बोले जा रहा था। भगवान को अब क्रोध आ गया। भगवान बोले की बेकार की बात करनी आती है या युद्ध करना भी आता है। मैं तुम्हारे सामने खड़ा हूं। तुम क्यों नहीं मुझ पर आक्रमण करते? बढ़ो आगे, मुझ पर आक्रमण करो।
हिरण्याक्ष की रगों में बिजली दौड़ गई। वह हाथ में गदा लेकर भगवान विष्णु पर टूट पड़ा। भगवान के हाथों में कोई अस्त्र शस्त्र नहीं था। उन्होंने दूसरे ही क्षण हिरण्याक्ष के हाथ से गदा छीनकर दूर फेंक दी। हिरण्याक्ष को इतना क्रोध आया कि वह हाथ में त्रिशूल लेकर भगवान विष्णु की ओर झपटा। भगवान वाराह और हिरण्याक्ष मे मध्य भयंकर युद्ध होने लगा।
भगवान विष्णु ने शीघ्र ही सुदर्शन का आह्वान किया, चक्र उनके हाथों में आ गया। उन्होंने अपने चक्र से हिरण्याक्ष के त्रिशूल के टुकड़े-टुकड़े कर दिये।हिरण्याक्ष अपनी माया का प्रयोग करने लगा। वह कभी प्रकट होता, तो कभी छिप जाता, कभी अट्टहास करता, तो कभी डरावने शब्दों में रोने लगता, कभी रक्त की वर्षा करता, तो कभी हड्डियों की वर्षा करता। भगवान विष्णु उसके सभी माया कृत्यों को नष्ट करते जा रहे थे।
जब भगवान विष्णु हिरण्याक्ष को बहुत नचा चुके, तो उन्होंने उसकी कनपटी पर कस कर एक चपत जमाई। उस चपत से उसकी आंखें निकल आईं।
वह धरती पर गिरकर निश्चेष्ट हो गया और अन्त में हिरण्याक्ष का भगवान वाराह के हाथों वध हो गया।
भगवान वाराह के विजय प्राप्त करते ही ब्रह्मा जी सहित समस्त देवतागण आकाश से पुष्प वर्षा कर उनकी स्तुति करने लगे।
!! जय श्री नारायण!!
साक्षात् श्री नारायण हैं , श्री चक्र सुदर्शनधारी
स्वयं द्वारिकाधीश प्रभु हैं , गोविंद कृष्णमुरारी
!! जय श्री नारायण!!
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मनुष्य योनि का महत्व ,,,,,,,,
*नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही॥
नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी। ग्यान बिराग भगति सुभ देनी॥5॥
भावार्थ:-मनुष्य शरीर के समान कोई शरीर नहीं है। चर-अचर सभी जीव उसकी याचना करते हैं। वह मनुष्य शरीर नरक, स्वर्ग और मोक्ष की सीढ़ी है तथा कल्याणकारी ज्ञान, वैराग्य और भक्ति को देने वाला है॥
5॥
* सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर। होहिं बिषय रत मंद मंद तर॥
काँच किरिच बदलें ते लेहीं। कर ते डारि परस मनि देहीं॥6॥
भावार्थ:-ऐसे मनुष्य शरीर को धारण (प्राप्त) करके भी जो लोग श्री हरि का भजन नहीं करते और नीच से भी नीच विषयों में अनुरक्त रहते हैं, वे पारसमणि को हाथ से फेंक देते हैं और बदले में काँच के टुकड़े ले लेते हैं॥6॥
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"इतना भी आसान नहीं है , प्रभु की इबादत करना,"
"दिल से गुरुर जायेगा,तभी तो खुदा का नूर आयेगा।"
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दूध कब जहर बन जाता है ==
१. मछली २. प्याज ३. उड़द दाल ४. तिल ५. नीबू
६. दही ७. मूली ८. जामुन ९. करेला १०. नमक
इनके खाने के बाद या पहले दूध नहीं पीना चाहिए !
आजु धन्य मैं धन्य अति जद्यपि सब विधि हीं l
निज जन जानि राम मोहि संत समागम दीन l