मृत्यु के पश्चात, आदि शंकराचार्य द्वारा वर्णित जीवात्मा का मोक्ष मार्ग,,,,,
मृत्यु के समय जीव और उसके शरीर के साथ क्या घटित हो रहा होता है ये वहाँ उपस्थित अन्य लोगों का अंदाज़ा नहीं लग पाता। लेकिन घटनाएं तेज़ी से घटती हैं। मृत्यु की दहलीज़ पर खड़े व्यक्ति की सबसे पहले वाकइन्द्रिय, उसके मन में विलीन हो जाती है।
उस समय वह अपने मन-ही-मन में विचार कर सकता है लेकिन कुछ बोल नहीं सकता। उसके बाद दृश्येंद्रिय और फिर कर्णइन्द्रिय भी मन में विलीन हो जाती है। उस समय वह न देख पाता है, ना सुन पाता है और ना ही बोल पाता है।
उसके बाद मन, इन इन्द्रियों के साथ प्राण के अन्दर विलीन हो जाता है। उस समय सोचने समझने की क्षमता भी समाप्त हो जाती है, केवल श्वास-प्रश्वास चलती रहती है।
इसके बाद सबके साथ प्राण, जीव के सूक्ष्म शरीर के भीतर प्रस्थान करता है। फिर जीव सूक्ष्म रूप से पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश (यानी पञ्च तन्मात्राओं) का आश्रय लेकर, ह्रदय देश से निकलने वाली 101 नाड़ियों में से किसी एक में प्रवेश करता है।
ह्रदय देश से कुल 101नाड़ियाँ निकली हुई हैं। मौत के समय जीव, इन्ही में से किसी एक नाड़ी में प्रवेश करके देहत्याग करता है। मोक्ष प्राप्त करने वाला जीव जिस नाड़ी में प्रवेश करता है, वह नाड़ी ह्रदय से मष्तिष्क तक फ़ैली हुई है। जो मृत्यु के समय आवागमन के बंधन से मुक्त नहीं हो रहे होते, वे जीव किसी दूसरी नाड़ी में प्रवेश करते हैं।
जीव जब तक नाड़ी में प्रवेश नहीं करता, तब तक ज्ञानी और मूर्ख, दोनों की गति एक ही तरह की होती है। नाड़ी में प्रवेश करने के बाद अलग-अलग तरह की गतियाँ हो जाती हैं जीवों की।
शकाराचार्य जी का कथन है कि ‘जो लोग ब्रह्मविद्या की प्राप्ति करते हैं, वे मृत्यु के बाद देह ग्रहण नहीं करते, बल्कि मृत्यु होते ही उनको मोक्ष प्राप्त हो जाता है’। श्री रामानुज स्वामी जी का कहना है ‘ब्रह्मविद्या की प्राप्ति होने पर भी जीव जीव देवयान पथ में गमन करने के बाद ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है और फिर मुक्त हो जाता है’।
देवयान पथ के सन्दर्भ में शंकराचार्य जी ने स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है कि ‘जो लोग सगुण ब्रह्म की उपासना करते हैं, वे ही देवयान पथ में जा कर सगुण ब्रह्म को प्राप्त होते हैं, और जो लोग निर्गुण ब्रह्म की उपासना करके ब्रह्मविद्या प्राप्त करते हैं, वे लोग देवयान पथ से नहीं जाते। अग्नि के संयोग से जब स्थूल शरीर नष्ट हो जाता है, उस समय सूक्ष्म शरीर नष्ट नहीं हुआ करता।
मृत्यु के समय स्थूल शरीर का जो भाग थोड़ा गर्म महसूस होता है, वास्तव में उसी स्थान से जीवात्मा अपने सूक्ष्म शरीर के साथ देहत्याग करता है। इसीलिए वह स्थान थोड़ा गर्म महसूस होता है’।
वास्तव में जो ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर लेते हैं उनकी मृत्यु रात में हो या दक्षिणायन में हो उससे कोई फर्क नहीं पड़ता, उनको मोक्ष की प्राप्ति होती ही है यानी वो काल के प्रभाव से ऊपर उठ चुके होते हैं।
भगवत गीता के अनुसार जो लोग मृत्यु के अनंतर देवयान पथ से गति करते हैं उनको ‘अग्नि’ और ‘ज्योति’ नाम के देवता अपने-अपने अधिकृत स्थानों के द्वारा ले जाते हैं |
उसके बाद ‘अहः’अथवा दिवस के अभिमानी देवता ले जाते है | उसके बाद शुक्ल पक्ष के देवता तथा उत्तरायण के देवता ले जाते हैं |
थोड़ा स्पष्ट शब्दों में कहें तो देवयान पथ में सबसे पहले अग्निदेवता का अधिकृत देश आता है फिर दिवस देवता, शुक्ल पक्ष, उत्तरायण, वत्सर, वायु और फिर आदित्य देवता का देश आता है | देवयान मार्ग इन सब देवताओं के अधिकृत देशों से हो कर गुजरता है।
उसके बाद चन्द्र, विद्युत्, वरुण, इन्द्र, प्रजापति तथा ब्रह्म, क्रमशः इनके देश पड़ते हैं | जो ईश्वर की पूजा-पाठ करते हैं, उनकी भक्ति करते हैं वो इस मार्ग से जाते हैं उनका पुनर्जन्म नहीं होता, वो अपने अभीष्ट के अविनाशी धाम जाते हैं।
परन्तु जो लोग ईश्वर की पूजा-पाठ नहीं करते और उनमे भक्ति रखते हैं लेकिन परोपकारी कार्य जैसे दान आदि पुण्य कर्म करते हैं, वे, मृत्यु के बाद देवयान मार्ग से नहीं जाते बल्कि पितृयान मार्ग से जाते हैं और उच्च लोकों में जन्म ले कर वहाँ के ऐश्वर्य सुख भोगते हैं लेकिन उनका पुनर्जन्म होता है | पितृयान मार्ग से भी चंद्रलोक जाना पड़ता है लेकिन वो रास्ता थोड़ा अलग होता है |
उस पथ पर धूम, रात्रि, कृष्णपक्ष, दक्षिणायन आदि देवताओं के अधिकृत देश पड़ते हैं | अर्थात ये सब देवता उस जीव को अपने अधिकृत स्थान के मध्य से ले जाते हैं | चंद्रलोक कभी तो बहुत गर्म रहता है और कभी अतिरिक्त शीतल हो जाता है | वहाँ अपने स्थूल शरीर के साथ कोई मनुष्य नहीं रह सकता, लेकिन अपने सूक्ष्म शरीर के साथ (जो मृत्यु के बाद मिलती है) वह वहाँ (चंद्रलोक में) रह सकता है |
जो ईश्वर की पूजा नहीं करते, कोई परोपकार भी नहीं करते: जो केवल इन्द्रिय सुख-भोग में ही अपना पूरा जीवन व्यतीत करते हैं, वे लोग (मृत्यु के बाद) ना तो देवयान पथ से जाते हैं और ना ही पित्रयान पथ से बल्कि वे कीट पतंग या पशु योनि (जैसी उनकी आसक्ति या वासना हो) में बार-बार यहीं जन्म लेते हैं और यहीं मरते हैं |
जो लोग अत्यधिक पाप करते हैं, निरीह और असहायों को सताने में जिन्हें आनंद आता है, ऐसे नराधमों की गति (मृत्यु के बाद) निम्न लोकों यानी नर्क में होती है | वहाँ ये जिस स्तर का कष्ट दूसरों को दिए होते है, उसका दसगुना कष्ट पाते हैं | विभिन्न प्रकार के नर्कों का वर्णन भारतीय पौराणिक ग्रंथों में दिया हुआ है, इनका संक्षिप्त वर्णन रहस्यमय के लेखों में भी हुआ है।
यद्यपि भारतीय ग्रंथों के अनुसार नर्क में प्राणी हमेशा नहीं निवास करते बल्कि नर्क में कष्ट भोगते-भोगते उन पापियों का पाप नष्ट होने लगता है अंत में उन पापों के जल कर भस्म हो जाने पर जीवात्मा पुनः मृत्यु लोक में जन्म लेता है और पुनः उसके पास इस ब्रह्मांडीय सफ़र में उन्नति करने का और आगे बढ़ने का अवसर होता है।
<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<<
राजा जनक को नरक लोक द्वार के दर्शन,,,,,
प्राचीन काल की बात है। राजा जनक ने ज्यों ही योग बल से शरीर का त्याग किया, त्यों ही एक सुन्दर सजा हुआ विमान आ गया और राजा दिव्य-देहधारी सेवको के साथ उस पर चढकर चले।
.
विमान महाराज को संमनी पुरी के निकटवर्ती भाग से ले जा रहा था। ज्यों ही विमान वहाँ से आगे बढ़ने लगा, त्यों ही बड़े ऊँचे स्वंर से राजा को हजारों मुखों से निकली हुई करुणध्वनि सुनायी पड़ी...
.
पुण्यात्मा राजन्! आप यहां से जाइये नहीं, आपके शरीर को छूकर आने वाली वायु का स्पर्श पाकर हम यातनाओ से पीड़ित नरक के प्राणियों को बड़ा ही सुख मिल रहा है।
.
धार्मिक और दयालु राजा ने दुखी जीवों की करुण पुकार सुनकर दया के वश निश्चय किया कि, जब मेरे यहाँ रहने से इन्हें सुख मिलता है तो यम, मैं यहीं रहूंगा। मेरे लिये यही सुन्दर स्वर्ग है।
.
राजा वहीं ठहर गये। तब यमराज ने उनसे कहा, यह स्थान तो इष्ट, हत्यारे पापियों के लिये है।
.
हिंसक, दूसरो पर कलंक लगाने वाले, लुटेरे, पतिपरायणा पती का त्याग करनेवाले, मित्रों को धोखा देने वाले, दम्भी, द्वेष और उपहास करके मन-वाणी-शरीरों, कभी भगवान्का स्मरण न करने वाले जीव यहाँ आते हैं और उन्हें नरकों मे डालकर मैं भयंकर यातना दिया करता हूँ।
.
तुम तो पुण्यात्मा हो, यहाँ से अपने प्राप्य दिव्य लोक में जाओं।
.
जनक ने कहा, मेरे शरीर से स्पर्शं की हुई वायु इन्हें सुख पहुँचा रही है, तब मैं केसे जाऊं ? आप इन्हें इस दुख से मुक्त कर दें तो में भी सुखपूर्वक स्वर्ग में चला जाऊंगा।
.
यमराज ने [पापियों की ओर संकेत करके] कहा, ये कैसे मुक्त हो सकते है ? इन्होंने बड़े बड़े पाप किये हैं।
.
इस पापी ने अपने पर बिश्वास करने वाली मित्र पत्नी पर बलात्कार किया था, इसलिये इसको मैंनेे लोहशंकु नामक नरक में डाल कर दस हजार वर्षों तक पकाया है।
.
अब इसे पहले सूअर की और फिर मनुष्य की योनि प्राप्त होगी और वहाँ यह नपुंसक होगा।
.
यह दूसरा बलपूर्वक व्यभिचारमें प्रवृत्त था। सौ वर्षों तक रौरव नरक में पीड़ा भोगेगा।
.
इस तीसरे ने पराया धन चुराकर भोगा था, इसलिये दोनों हाथ काट कर इसे पूयशोणित नामक नरक में डाला जायगा।
.
इस प्रकार ये सभी पापी नरक के अधिकारी हैं। तुम यदि इन्हें छुड़ाना चाहते हो तो अपना पुण्य अर्पण करों।
.
एक दिन प्रातः काल शुद्ध मन से तुमने मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् श्रीरघुनाथ जी का ध्यान किया था और अकस्मात् रामनाम का उच्चारण किया था, बस वही पुण्य इन्हें दे दो। उससे इनका उद्धार हो जायगा।
.
राजा ने तुरंत अपने जीवन भर का पुण्य दे दिया और इसके प्रभाव से वे सारे प्राणी नरक यन्त्रणा से तत्काल छूट गये तथा दया के समुद्र महाराज जनक का गुण गाते हुए दिव्य लोक को चले गये।
.
तब राजा ने धर्मराज से पूछा कि, हे धर्मराज.. जब धार्मिक पुरुषों का यहां आना ही नहीं होता, तब फिर मुझे यहां क्यों लाया गया है।
.
इस पर धर्मराज ने कहा, राजन् तुम्हारा जीवन तो पुण्यो से भरा है, पर एक दिन तुमने छोटा सा पाप किया था।
.
एकदा तु चरन्ती गां वारयामास वै भवान्।
तेन पापविपाकेन निरयद्वारदर्शनम्।।
.
तुमने चरती हुई गौ माता को रोक दिया था। उसी पाप के कारण तुम्हें नरक का दरवाजा देखना पड़ा।
.
अब तुम उस पाप से मुक्त हो गये और इस पुण्यदान से तुम्हारा पुण्य और भी बढ़ गया। तुम यदि इस मार्ग से न आते तो इन बेचारों का नरक से कैसे उद्धार होता ?
.
तुम जैसे दूसरों के दुख से दुखी होने वाले दया धाम महात्मा दुखी प्राणियों का दुख हरने मे ही लगे रहते हैं।
.
भगवान् कृपासागर हैं। पाप का फल भुगताने के बहाने इन दुखी जीवों का दुख दूर करने के लिये ही इस संयमनी के मार्ग से उन्होंने तुम को यहां भेज दिया है।
.
तदनन्तर राजा धर्मराज को प्रणाम करके परम धाम को चले गये।
.
(पद्मपुराण, पातालखण्ड, अध्याय १८-१९)