एक ज्ञानवर्धक प्रस्तुति!!!!!!!
*पुनि बंदउँ सारद सुरसरिता। जुगल पुनीत मनोहर चरिता॥
मज्जन पान पाप हर एका। कहत सुनत एक हर अबिबेका॥
भावार्थ:-फिर मैं सरस्वती और देवनदी गंगाजी की वंदना करता हूँ। दोनों पवित्र और मनोहर चरित्र वाली हैं। एक (गंगाजी) स्नान करने और जल पीने से पापों को हरती है और दूसरी (सरस्वतीजी) गुण और यश कहने और सुनने से अज्ञान का नाश कर देती है॥
जय माँ सरस्वती!
जय माँ भारती!
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मान्यताओं के अनुसार-----
#यदि पत्नी के माँग के बीचो बीच सिन्दूर लगा हुआ है तो उसके पति की अकाल मृत्यू नही हो सकती है यानी शुभता का आगमन.
जो स्त्री अपने माँग के सिन्दूर को बालो से छिपा लेती है उसका पति समाज मेँ छिप जाता है
जो स्त्री बीच माँग मेँ सिन्दूर न लगाकर किनारे की तरफ सिन्दूर लगाती है उसका पति उससे किनारा कर लेता है।
यदि स्त्री के बीच माँग मेँ सिन्दूर भरा है तो उसके पति की आयु लम्बी होती है।
रामायण मेँ एक प्रसंग आता है जब बालि और सुग्रीव के बीच युध्द हो रहा था तब श्री राम ने बालि को नही मारा।
जब बालि के हाथो मार खाकर सुग्रीव श्री राम के पास पहुचा तो श्री राम ने कहा की तुम्हारी और बालि की शक्ल एक सी है इसिलिये मैँ भ्रमित हो गया
अब आप ही बताइये श्री राम के नजरो से भला कोई छुप सकता है क्या?
"असली बात तो यह थी जब श्री राम ने यह देख लिया की बालि की पत्नी तारा की माँग सिन्दूर से भरा हुआ है तो उन्होने सिन्दूर का सम्मान करते हुये बालि को नही मारा ।"
दूसरी बार जब सुग्रीव ने बालि को ललकारा तब तारा स्नान कर रही थी उसी समय भगवान ने देखा की मौका अच्छा है और बाण छोड दिया अब आप ही बताइये की जब माँग मेँ सिन्दूर भरा हो तो परमात्मा भी उसको नही मारते फिर उनके सिवाय कोई और क्या मारेगा।
यह पोस्ट मै इसीलिये कर रहा हुँ की आजकल चलन चल रहा है सिन्दूर न लगाने की या हल्का लगाने की या बीच माँग मेँ न लगाकर किनारे लगाने की ।
मैँ आशा करता हुँ की मेरे इस पोस्ट से आप लोग सिन्दूर का महत्व समझ गए होंगे और अपने पति की लम्बी आयु और अच्छे स्वास्थय के लिये अपने पति के नामका सिन्दूर अपने माँग मेँ भरे रखेंगी 🙏
विशेष ,,,,, पति पत्नी को एक दूसरे की सुख स्वास्थ्य बनाये रखने के लिए अपने विचारों में किसी भी दूसरी स्त्री या पुरुष का विचार ना करे विशेषकर परित्यक्ता , विधवा(वृद्ध को छोड़कर) एवं दुर्भाग्यशाली स्त्री पुरुष का विचार में आना ही दुर्भाग्य को आमंत्रण है ! (अपने विचारों मे देवी देवताओं को रखे)
पति पत्नी को एक दूसरे को विचारो में बनाये रखने के लिए ==
१. सात्विक आहार ही खाये
२. एक दूसरे के दोष ना देखे केवल अच्छे गुण ही का विचारे जिससे मन में एक दूसरे के प्रति घृणा ना पैदा हो !
३. आध्यात्मिक प्रवृतियों को अपने अंदर जन्म दे !
४. एक दूसरे की उन्नति एवं भलाई के विचारो को ही जन्म दे !
५. गलती करने पर क्षमा करते रहे !
नोट... केमिकल युक्त सिंदूर से बचे. हमारे विचार से सिंदूर लगाना शुभता को आमंत्रण है
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भवसागर से पार होने के लिये मनुष्य शरीर रूपी सुन्दर नौका मिल गई है।
सतर्क रहो कहीं ऐसा न हो कि वासना की भँवर में पड़कर नौका डूब जाय।
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अपने अन्तःकरण में परोपकार की पवित्र भावना उत्पन्न करने के लिए गाय का दूध पीए, मक्खन, घृत , ऋतु फल खाये, सूखे मेवे, शहद, गन्ना एवं जेविक खाद से उत्पन्न अन्न ( सत्व गुण युक्त )खाये जिससे आपका मन देविक विचार उत्पन्न करे l आप भाग्यशाली है कि ये ज्ञान ( पवित्र गीता अध्याय १४ वर्णित " सृष्टि त्रिगुणात्मक == सत्व, रज, तामस ) केवल सनातन धर्म के पवित्र ग्रंथो में लिपिबद्ध है l दुनिया के और किसी धर्म के पास नहीं है l अतः अपने आप को गौरवांवित महसूस करें l
इस प्रकार आप नरक जाने से बच सकते हैं l
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स्वयं कमाओ, स्वयं खाओ यह प्रकृति है । (रजो गुण)
दूसरा कमाए, तुम छीन कर खाओ यह विकृती है।(तमो गुण )
स्वयं कमाओ सबको खिलाओ, यह देविक संस्कृति हैं ! (सतो गुण )
** देविक प्रवृतियों को धारण करे तभी आप देवलोक पाने के अधिकारी बनेंगे **
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*अवश्यं यातारश्चिरतरमुषित्वापि विषया,*
*वियोगे को भे दस्त्यजति न जनो यत्स्वयममून्।*
*व्रजन्त: स्वातंत्र्यादतुलपरितापाय मनस:*
*स्वयं त्यक्ता ह्ये शमसुखमनन्तं विदधति ।।*
*भावार्थ -* सांसारिक विषय एक दिन हमारा साथ छोड़ देंगे, यह एकदम सत्य है। उन्होंने हमको छोड़ा या हमने उन्हें छोड़ा, इसमें क्या भेद है ? दोनों एक बराबर हैं। अतएव सज्जन पुरुष स्वयं उनको त्याग देते हैं। स्वयं छोड़ने में ही सच्चा सुख है, बड़ी शान्ति प्राप्त होती है।
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हमेशा ध्यान में रखिये ---
" आप एक शुद्ध चेतना है यानि स्व ऊर्जा से प्रकाशित आत्मा ! माया (अज्ञान ) ने आपकी आत्मा के शुद्ध स्वरुप को छीन रखा है ! अतः माया ( अज्ञान ) से पीछा छुडाइये और शुद्ध चेतना को प्राप्त कर परमानन्द का सुख भोगिए !
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सत्कर्म करते रहना ही सही अर्थों में,,, जीवन से प्रेम,, है !
मंगलकामना : प्रभु आपके जीवन से अन्धकार (अज्ञान )को मिटायें एवं प्रकाश (ज्ञान )से भर दें !
( मनुष्य पद की गरिमा को क्यों खोता है और उसके क्या परिणाम होते है ?
उत्तर -- मनुष्य पद की गरिमा को तामसिक प्रवृतियों ( वासना , लालच एवं अहंकार ) के आधीन होने के कारण खोता है ! पवित्र गीता के अनुसार ये प्रवृतिया नरक का द्वार है ! हमारे मत में ये प्रवृतिया हमारे जीवन में तामस के उदय का आरम्भ है और यही तामस मानवो के जीवन में अज्ञानता , जड़ता एवं मूढ़ता के उदय का कारण है जो हमें नरक लोक ले जाने में सक्षम है ! अतः भ्रष्टाचार से बचो यानि पद की गरिमा को मत खोओ ! कोई भी पद या सम्मान (गरिमा ) इस जन्म में (पूर्व में संचित ) पुण्य कर्मो की देन है !पुण्य कर्मो के ह्यास के साथ ही गरिमा भी समाप्त हो जाती है और मानव को फिर अनेक योनियों में भटकना पड़ता है )
धर्मशील व्यक्ति ,,,,,,,
जिमि सरिता सागर महँ जाहीं l
जद्यपि ताहि कामना नाहीं ll
तिमि सुख सम्पति बिनहिं बुलाये l
धर्मशील पहँ जाइ सुहाये ll
जैसे सरिता (नदी ) उबड-खाबड़, पथरीले स्थानों को पार करते हुए पूर्ण रूपेण निष्काम भाव से समुद्र में जा मिलती है, उसी प्रकार धर्म-रथ पर आसीन मनुष्य के पास उसके न चाहते हुए भी समस्त सुख-सम्पत्ति, रिद्धियाँ-सिद्धियाँ स्वत: आ जाती हैं, सत्य तो यह है कि वे उसकी दासिता ग्रहण करने के लिए लालायित रहती है !
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,,,,सच्चे संतो की वाणी से अमृत बरसता है , आवश्यकता है ,,,उसे आचरण में उतारने की ....
जिस प्रकार मैले दर्पण में सूर्य देव का प्रकाश नहीं पड़ता है उसी प्रकार मलिन अंतःकरण में ईश्वर के प्रकाश का प्रतिबिम्ब नहीं पड़ता है अर्थात मलिन अंतःकरण में शैतान अथवा असुरों का राज होता है ! अतः ऐसा मनुष्य ईश्वर द्वारा प्रदत्त " दिव्यदृष्टि " या दूरदृष्टि का अधिकारी नहीं बन सकता एवं अनेको दिव्य सिद्धियों एवं निधियों को प्राप्त नहीं कर पाता या खो देता है !
किसी भी गौशाला में दान देकर गौवंश को बचाये और देवताओं का आशीर्वाद एवं कृपा प्राप्त करे ! साथ ही अपने प्रारब्ध ( भाग्य ) में पुण्य संचित करे ! यह एक ऐसा पुण्य है जिससे इहलोक में देवताओ से सुख समृद्धि मिलती है एवं परलोक में स्वर्ग ! == 🙏👏🌹🌲🌿🌹
" जीवन का सत्य आत्मिक कल्याण है ना की भौतिक सुख !"
"सत्य वचन में प्रीति करले,सत्य वचन प्रभु वास।
सत्य के साथ प्रभु चलते हैं, सत्य चले प्रभु साथ।। "
"एक माटी का दिया सारी रात अंधियारे से लड़ता है,
तू तो प्रभु का दिया है फिर किस बात से डरता है..."
हे मानव तू उठ और सागर (प्रभु ) में विलीन होने के लिए पुरुषार्थ कर ,,,,,,,
शरीर परमात्मा का दिया हुआ उपहार है ! चाहो तो इससे " विभूतिया " (अच्छाइयां / पुण्य इत्यादि ) अर्जित करलो चाहे घोरतम " दुर्गति " ( बुराइया / पाप ) इत्यादि !
परोपकारी बनो एवं प्रभु का सानिध्य प्राप्त करो !
प्रभु हर जीव में चेतना रूप में विद्यमान है अतः प्राणियों से प्रेम करो !
शाकाहार अपनाओ , करुणा को चुनो !
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