देवर्षि नारद द्वारा युधिष्ठिर को अपना पूर्व जन्म सुनाना,,,,,,,,,,,,,
( श्रीमद्भागवत महापुराण, सप्तम स्कन्ध, अध्याय 15)
देवर्षि नारद युधिष्ठिर से कहते हैं राजन! पूर्व जन्म में इसके पहले के महाकल्प में मैं एक गन्धर्व था। मेरा नाम था 'उपबर्हण' और गन्धर्वों में मेरा बड़ा सम्मान था। मेरी सुन्दरता, सुकुमारता और मधुरता अपूर्व थी। मेरे शरीर से सुगन्धि निकला करती और देखने में मैं बहुत अच्छा लगता। स्त्रियाँ मुझसे बहुत प्रेम करतीं और मैं सदा प्रमाद में ही रहता। मैं अत्यन्त विलासी था। एक बार देवताओं के यहाँ ज्ञानसत्र हुआ। उसमें बड़े-बड़े प्रजापति आये थे। भगवान् की लीला का गान करने के लिये उन लोगों ने गन्धर्व और अप्सराओं को बुलाया। मैं जानता था कि वह संतों का समाज है वहाँ भगवान् की लीला का ही गान होता है। फिर भी मैं स्त्रियों के साथ लौकिक गीतों का गान करता हुआ उन्मत्त की तरह वहाँ जा पहुँचा। जब देवताओं ने यह देखा तो उन्होंने अपनी शक्ति से मुझे शाप दे दिया कि ‘तुमने हम लोगों की अवहेलना की है, इसलिये तुम्हारी सारी सौंदार्य-सम्पत्ति नष्ट हो जाय और तुम शीघ्र ही शूद्र हो जाओ’। उनके शाप से मैं दासी का पुत्र हुआ। किन्तु उस शूद्र-जीवन में किये हुए महात्माओं के सत्संग और सेवा-शुश्रूषा के प्रभाव से मैं दूसरे जन्म में ब्रम्हाजी का पुत्र हुआ। संतों की अवहेलना और सेवा का यह मेरा प्रत्यक्ष अनुभव है। संत-सेवा से ही भगवान् प्रसन्न होते हैं।
युधिष्ठिर! बड़े-बड़े महापुरुष निरन्तर जिनको ढूँढ़ते रहते हैं, जो माया ( अज्ञान ) के लेश से रहित परम शान्त परमानन्दानुभव-स्वरूप परब्रम्ह परमात्मा हैं—वे ही तुम्हारे प्रिय, हितैषी, ममेरे भाई, आज्ञाकारी, गुरु, स्वयं आत्मा और पूज्य कृष्ण हैं। शंकर, ब्रम्हा आदि भी अपनी सारी बुद्धि लगाकर ‘ये यह हैं’—इस रूप में उनका वर्णन नहीं कर सके। फिर हम तो कर ही कैसे सकते हैं। कृपया हमारी पूजा स्वीकार करके भक्तवत्सल भगवान् हम पर प्रसन्न हों।
अहं पुराभवं कश्चिद् गन्धर्व उपबर्हणः ।
नाम्नातीते महाकल्पे गन्धर्वाणां सुसम्मतः ॥ ६९ ॥
रूप पेशल माधुर्य सौगन्ध्य प्रिय दर्शनः ।
स्त्रीणां प्रियतमो नित्यं मत्त: स्व पुर लम्पट: ॥ ७० ॥
एकदा देव सत्रे तु गन्धर्वाप्सरसां गणाः ।
उपहूता विश्व सृग्भिर् हरि गाथोपगायने ॥ ७१ ॥
अहं च गायंस् तद् विद्वान् स्त्रीभिः परिवृतो गतः ।
ज्ञात्वा विश्व सृजस् तन् मे हेलनं शेपुरोजसा ।
याहि त्वं शूद्रतामाशु नष्ट श्रीः कृत हेलनः ॥ ७२ ॥
तावद् दास्यामहं जज्ञे तत्रापि ब्रह्म वादिनाम् ।
शुश्रूषयानुषङ्गेण प्राप्तोऽहं ब्रह्म पुत्रताम् ॥ ७३ ॥
धर्मस् ते गृह मेधीयो वर्णितः पाप नाशनः ।
गृहस्थो येन पदवीमञ्जसा न्यासिनामियात् ॥ ७४ ॥
यूयं नृ लोके बत भूरि भागा लोकं पुनाना मुनयोऽभियन्ति ।
येषां गृहानावसतीति साक्षाद् गूढं परं ब्रह्म मनुष्य लिङ्गम् ॥ ७५ ॥
स वा अयं ब्रह्म महद् विमृग्य कैवल्य निर्वाण सुखानुभूतिः ।
प्रियः सुहृद् वः खलु मातुलेय आत्मार्हणीयो विधि कृद् गुरुश् च ॥ ७६ ॥
न यस्य साक्षाद् भव पद्मजादिभी रूपं धिया वस्तुतयोपवर्णितम् ।
मौनेन भक्त्योपशमेन पूजितः प्रसीदतामेष स सात्वतां पतिः ॥ ७७ ॥
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धर्मशील व्यक्ति ,,,,,,,
जिमि सरिता सागर महँ जाहीं l
जद्यपि ताहि कामना नाहीं ll
तिमि सुख सम्पति बिनहिं बुलाये l
धर्मशील पहँ जाइ सुहाये ll
जैसे सरिता (नदी ) उबड-खाबड़, पथरीले स्थानों को पार करते हुए पूर्ण रूपेण निष्काम भाव से समुद्र में जा मिलती है, उसी प्रकार धर्म-रथ पर आसीन मनुष्य के पास उसके न चाहते हुए भी समस्त सुख-सम्पत्ति, रिद्धियाँ-सिद्धियाँ स्वत: आ जाती हैं, सत्य तो यह है कि वे उसकी दासिता ग्रहण करने के लिए लालायित रहती है ल
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भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्॥2॥
श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप माता पार्वती जी और श्री शंकर जी की मैं वंदना करता हूँ,
""**जिनके बिना सिद्धजन अपने अन्तःकरण में स्थित ईश्वर को नहीं देख पाते॥2॥""**
I worship Goddess Parvati and Her consort, Sri Shankar, the embodiments of reverence and faith, without then even the adept cannot perceive God present in their own heart.॥2॥
वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकररूपिणम्।
यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते॥3॥
अर्थात = ज्ञानमय, नित्य, शंकर रूपी गुरु की मैं वन्दना करता हूँ, जिनके आश्रित होने से ही टेढ़ा चन्द्रमा भी सर्वत्र वन्दित होता है॥3॥
I worship Lord Shankar, the eternal preceptor, who is all wisdom, and resting on whose forehead, the crescent moon, though crooked in shape, is universally worshipped.॥3॥
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** देविक प्रवृतियों को धारण (Perception ) करे तभी आप देवलोक पाने के अधिकारी बनेंगे **
,,,,सच्चे संतो की वाणी से अमृत बरसता है , आवश्यकता है ,,,उसे आचरण में उतारने की ....
।।धर्म की जय हो अधर्म का नाश हो प्राणियों में सद्भावना हो विश्व का कल्याण हो।।
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" जीवन का सत्य आत्मिक कल्याण है ना की भौतिक सुख !"
"एक माटी का दिया सारी रात अंधियारे से लड़ता है,
तू तो प्रभु का दिया है फिर किस बात से डरता है..."
हे मानव तू उठ और सागर (प्रभु ) में विलीन होने के लिए पुरुषार्थ कर ,,,,,,,,,
*आत्मा भी अंदर है* *परमात्मा भी अंदर है*
*आत्मा के परमात्मा**से मिलने का रास्ता*
*भी अंदर ही है ..*
_*"खुद"को "खुद" के अंदर ही बोध करो...*_
_*अपने कर्माें पर भी कभी तो शोध करो...*_
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शरीर परमात्मा का दिया हुआ उपहार है ! चाहो तो इससे " विभूतिया " (अच्छाइयां / पुण्य इत्यादि ) अर्जित करलो चाहे घोरतम " दुर्गति " ( बुराइया / पाप ) इत्यादि !
परोपकारी बनो एवं प्रभु का सानिध्य प्राप्त करो !
प्रभु हर जीव में चेतना रूप में विद्यमान है अतः प्राणियों से प्रेम करो !
शाकाहार अपनाओ , करुणा को चुनो ! जय गौमाता की 🙏👏🌹🌲