भक्ति ,,,,,,,
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एक बार कृष्ण और राधा जू निधिवन में रात्रि में सभी गोपियों के साथ हास परिहास कर रहे थे।
राधा जू ने कृष्ण से कहा आप मुझे कोई कहानी सुनाइए या फिर ये बताइये कि भक्त कष्ट क्यों पाते हैं।
कृष्ण बोले- राधे! सुनो
एक भक्त थे, वो ह्रदय से मेरी भक्ति करते थे ।
उन्हें लगता था की भगवान की भक्ति करने से उनके जीवन में सुख ही सुख रहेगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं । उन्हें भक्ति करते कई साल बीत गए और वो निर्धन होते चले गए। यही नहीं उनके समकालीन लोग उनसे बहुत धनी हो गए और वे सब उन भक्तजन का बड़ा परिहास उड़ाते।
भगत जी को लगता की उनसे अच्छा तो ये लोग ही जीवन जी रहे हैं इन्हे तो भगवान की भक्ति भी नहीं करनी पड़ती । मैंने भी इतना समय लगा कर देख लिया न तो प्रभु मिले और ना ही जीवन में कुछ सुख आया । अब तो मैं भक्ति भी नहीं छोड़ सकता वरना लोग मुझे और भटका हुआ समझेंगे। ऐसा विचार करते करते उन्होंने ये अनुभव किया कि लगता है मुझे प्रभु कृष्ण की प्रतीति ही नहीं है, मुझे ये कैसे विश्वास हो कि वो सचमुच हैं या नहीं ।
उस भक्त ने सुन रखा था कि भगवान श्रीकृष्ण निधिवन में रोज़ आते हैं और कोई छुप के देख ले तो उसका अहित हो जाता है ।
उसने सोचा अब मेरा क्या अहित होगा ये विचारकर वो साँझ को सबसे आँख बचाकर निधिवन में छुप गया और रात्रि कि बाट जोहने लगा।
अब बताओ राधा मैं उन संत जन को कैसे बताऊँ कि यदि सांसारिक इच्छा उनकी शेष रहेगी तो उन्हें जाने कितने जन्म और कितनी योनियों में भटकना पड़ेगा इसीलिए मैं उन्हें सांसारिक सुख नहीं दे रहा और अगर वो संसार की *** "आसक्ति "*** हटा दें तो उन्हें सब कुछ मिल जाएगा।
इसके लिए उन्हें मुझमे ही मन लगाना पड़ेगा। इन भक्त जन को ये लगता है कि भगवान निधिवन में आते नहीं हम उन्हें कैसे बताएं हम आते भी हैं और अपने भक्त जनो की बात भी चलाते हैं।
ऐसा कहकर श्री कृष्ण मुस्कुरा दिए !
तभी वो भक्त जो वहां छुपे बैठे थे भगवान कि अद्भुत दिव्य लीला देखकर चमत्कृत रह गए वे दौड़ के आये और प्रभु के चरणो में गिर गए । वे राधा रानी का भी बहुत आभार करना चाहते थे जो उन्होंने ऐसा प्रश्न किया लेकिन वो कुछ कह ही न पाये।
प्रभु कि अनुकम्पा से जब वे कुछ बोल सके और जब उनसे वर मांगने का कहा गया तो बार बार आग्रह करने लगे कि उनके इस दिव्य स्वरुप को ही वो नित्य देखना चाहते हैं।
प्रभु ने कहा ठीक है तुम यहीं निधिवन में लता बनकर रहो अबसे तुम भी हमारे साथ नित्य रात्रि में रहोगे और प्रभु ने उस भक्त अथार्त गोपी को जो कई जन्मों से प्रभु से बिछड़ी हुई थी कृतार्थ कर दिया ।
🙏जय श्री राधे कृष्ण 🌸
🙏भक्तवत्सल भगवान की जय हो🙏
विशेष,,, प्रभु अपने सच्चे भक्तो के मन से विषय वासना एवं आसक्ति को मिटा देते है जिससे अनेक योनियों में ना भटकना पड़े ! वेदो में वर्णित जीवन के अन्तिम लक्ष्य "मोक्ष " की ओर प्रेरित करते है जिससे वो ब्रह्मलीन हो सके यानि भौतिक सुख की जगह आत्मा को सुसुप्त अवस्था से जाग्रत अवस्था में ले आते है ! यही एक जीवात्मा का सबसे बड़ा सुख है क्योंकि आत्मा की सुसुप्त अवस्था तामस के उदय के कारण होती है जो नरकगामी है ! अतः प्रभु अपने भक्तो की विषय वासना और आसक्ति से दूर रखने की कोशिश करते है / दूर रखते है !
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏(2)
भवसागर से पार होने के लिये मनुष्य शरीर रूपी सुन्दर नौका मिल गई है। सतर्क रहो कहीं ऐसा न हो कि वासना की भँवर में पड़कर नौका डूब जाय।
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मानसिक मल या मन की मैल
जब मन विषयों में आसक्त रहता है तो उसे मानसिक मल कहते हैं। जब संसार की मोहमाया व विषयों से वैराग्य हो जाए तो उसे मन की निर्मलता कहते हैं।
मानसिक तीर्थ,,,
सत्यं तीर्थं क्षमा तीर्थं तीर्थमिन्द्रियनिग्रह:।।
सर्वभूतदया तीर्थं तीर्थमार्जवमेव च।
दान तीर्थं दमस्तीर्थं संतोषस्तीर्थमेव च।।
ब्रह्मचर्यं परं तीर्थं नियमस्तीर्थमुच्यते।
मन्त्राणां तु जपस्तीर्थं तीर्थं तु प्रियवादिता।।
ज्ञानं तीर्थं धृतिस्तीर्थमहिंसा तीर्थमेव च।
आत्मतीर्थं ध्यानतीर्थं पुनस्तीर्थं शिवस्मृति:।।
अर्थात्—सत्य तीर्थ है, क्षमा तीर्थ है, इन्द्रियनिग्रह तीर्थ है, सभी प्राणियों पर दया करना, सरलता, दान, मनोनिग्रह, संतोष, ब्रह्मचर्य, नियम, मन्त्रजप, मीठा बोलना, ज्ञान, धैर्य, अहिंसा, आत्मा में स्थित रहना, भगवान का ध्यान और भगवान शिव का स्मरण—ये सभी मानसिक तीर्थ कहलाते हैं।
शरीर और मन की शुद्धि, यज्ञ, तपस्या और शास्त्रों का ज्ञान ये सब-के-सब तीर्थ ही हैं। जिस मनुष्य ने अपने मन और इन्द्रियों को वश में कर लिया, वह जहां भी रहेगा, वही स्थान उसके लिए नैमिष्यारण, कुरुक्षेत्र, पुष्कर आदि तीर्थ बन जाएंगे।
अत: मनुष्य को ज्ञान की गंगा से अपने को पवित्र रखना चाहिए, ध्यान रूपी जल से राग-द्वेष रूपी मल को धो देना चाहिए और यदि वह सत्य, क्षमा, दया, दान, संतोष आदि मानस तीर्थों का सहारा ले ले तो जन्म-जन्मान्तर के पाप धुलकर परम गति को प्राप्त कर सकता है।
‘भगवान के प्रिय भक्त स्वयं ही तीर्थरूप होते हैं। उनके हृदय में भगवान के विराजमान होने से वे जहां भी विचरण करते हैं; वही महातीर्थ बन जाता है।
होने से पहले रुखसत ,
कर्मों का लगा लें हिसाब ।
माटी में मिलने से पहले ,
माटी न हो हमारी खराब ।
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" जीवन का सत्य आत्मिक कल्याण है ना की भौतिक सुख !"