रावण का लक्ष्मण को ज्ञान ,,,,,
राम-रावण का घनघोर युद्ध समाप्त हो चुका था। रावण मृत्युशैया पर पड़ा था। श्रीराम ने उसका अंतिम समय जान अनुज लक्ष्मण से कहा - 'जाओ, अपने समय का एक श्रेष्ठ विद्वान पंडित अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है। जाकर उससे कुछ शिक्षा लो।" लक्ष्मणजी गए। उन्होंने रावण के पास जाकर तीन बार प्रार्थना कि वह उन्हें नीति की शिक्षा दे, लेकिन रावण ने एक शब्द भी नहीं कहा। वह चुपचाप देखता रहा।
लक्ष्मण वापस लौटे तो श्रीराम ने पूछा - 'क्या सीखकर आए?" लक्ष्मण ने सारी वस्तुस्थिति बयान कर दी। तब श्रीराम ने उन्हें समझाते हुए कहा - 'तुम रावण को शत्रु समझकर उसके पास गए थे। अस्तु तुम्हारे निवेदन का भाव भी वही था। अब एक शिष्य की तरह उसके पास जाओ। जाकर उसे प्रणाम करो, शीश नवाओ, उसकी प्रदक्षिणा करो और तब अपनी बात कहो।"
लक्ष्मण ने जाकर ऐसा ही किया। अब लक्ष्मण के आचरण से संतुष्ट रावण ने उन्हें नीति की शिक्षा दी। लक्ष्मण को काफी देर तक नीति-उपदेश देने के बाद रावण ने कहा - 'लक्ष्मण, मैं अपने जीवन में चार काम करना चाहता था, जो मैं नहीं कर पाया।
पहला, अपनी लंका के आसपास का सौ योजन समुद्र मीठा कर दूं।
दूसरा, अपनी सोने की लंका को सुगंधित कर दूं।
तीसरा, स्वर्ग के लिए सीढ़ियां बनवा दूं।
चौथा, मृत्यु को अपने वश में कर लूं।"
यह कहकर रावण थोड़ी देर के लिए चुप हो गया। फिर उसने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा - 'लक्ष्मण, मेरा बल-वैभव अपार था। मैं ये चारों काम कर सकता था। पर इसलिए नहीं कर पाया क्योंकि मैं इन्हें छोटा समझकर टालता रहा। यही वजह है कि मैं आज मन के अरमान मन में रखकर इस संसार से जा रहा हूं। किसी भी काम की उपेक्षा करना, उसे टालना, उसे छोटा मान लेना, जिस काम को आज कर सकते हैं, उसे कल के लिए छोड़ देना मनुष्य की सबसे बड़ी भूल है। मैं जो करना चाहता था, वह नहीं किया। मुझे अपनी इस भूल का दु:ख है। लक्ष्मण, तुम्हें मेरा परामर्श यही है कि तुम यह गलती कभी मत करना।" इतना कहकर रावण के नेत्र बंद हो गए।
लक्ष्मण ने नीति-उपदेश ग्रहण कर रावण की पार्थिव देह को नमन किया और अपने शिविर में वापस लौट आए।
नोट --- इस सम्बन्ध में अनेक विद्वानों ने अनेक प्रकार से प्रस्तुति की है उनमे से एक उपरोक्त कही हुई कथा है !
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२. अपने बारे में निर्णय आप स्वयं ले की आप कितने धार्मिक है !
धर्म के दस लक्षण ----
मनु ने धर्म के दस लक्षण गिनाए हैं:
धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।। (मनुस्मृति ६.९२)
(धैर्य, क्षमा, संयम, चोरी न करना, शौच (स्वच्छता), इन्द्रियों को वश मे रखना, बुद्धि, विद्या, सत्य और क्रोध न करना ; ये दस धर्म के लक्षण हैं।)
सात्विक आहार एवं इन्द्रियों पर नियंत्रण से आप धर्मं को अपने अंदर पोषित कर सकते है ! वेदों के अनुसार जीवन के चार लक्ष्य ( धर्म ,अर्थ , काम एवं मोक्ष ) को प्राप्त करने के लिए पुरुषार्थ कर सकते है ! आहार एवं व्यवहार पर चिंतन अवशय करें !
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धर्मशील व्यक्ति ,,,,,,,
जिमि सरिता सागर महँ जाहीं l
जद्यपि ताहि कामना नाहीं ll
तिमि सुख सम्पति बिनहिं बुलाये l
धर्मशील पहँ जाइ सुहाये ll
जैसे सरिता (नदी ) उबड-खाबड़, पथरीले स्थानों को पार करते हुए पूर्ण रूपेण निष्काम भाव से समुद्र में जा मिलती है, उसी प्रकार धर्म-रथ पर आसीन मनुष्य के पास उसके न चाहते हुए भी समस्त सुख-सम्पत्ति, रिद्धियाँ-सिद्धियाँ स्वत: आ जाती हैं, सत्य तो यह है कि वे उसकी दासिता ग्रहण करने के लिए लालायित रहती है ल
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" जीवन का सत्य आत्मिक कल्याण है ना की भौतिक सुख !"
"एक माटी का दिया सारी रात अंधियारे से लड़ता है,
तू तो प्रभु का दिया है फिर किस बात से डरता है..."
हे मानव तू उठ और सागर (प्रभु ) में विलीन होने के लिए पुरुषार्थ कर ,,,,,,,,,
शरीर परमात्मा का दिया हुआ उपहार है ! चाहो तो इससे " विभूतिया " (अच्छाइयां / पुण्य इत्यादि ) अर्जित करलो चाहे घोरतम " दुर्गति " ( बुराइया / पाप ) इत्यादि !
परोपकारी बनो एवं प्रभु का सानिध्य प्राप्त करो !
प्रभु हर जीव में चेतना रूप में विद्यमान है अतः प्राणियों से प्रेम करो !
शाकाहार अपनाओ , करुणा को चुनो !
जय गौमाता की 🙏👏🌹🌲🌿