नित्य पूजन में आचमन का महत्व और लाभ.....
शास्त्रों में आचमन ग्रहण करने की कई विधियां बताई गई हैं। किसी भी पूजा में आचमन करना सर्वथा आवश्यक माना गया है ऐसा ना करने से पूजा का फल आधा माना जाता है वहीं ऐसा करने पर भक्तों को भगवान की दोगुनी कृपा प्राप्त होती है।
आचमन का अर्थ होता है पवित्र जल ग्रहण करते हुए आंतरिक रूप से मन और हृदय की शुद्धि। पूजा, यज्ञ आदि आरंभ करने से पूर्व शुद्धि के लिए मंत्र पढ़ते हुए जल पीना ही आचमन कहलाता है।
पूजा से पूर्व तांबे के पात्र में गंगाजल या पीने योग्य साफ-शुद्ध जल लेकर उसमें तुलसी की कुछ पत्तियां डालकर पूजा स्थल पर रखा जाता है और पूजा शुरु होने से पूर्व आचमनी (तांबे का छोटा चम्मच जिससे जल निकाला जाता है) से हाथों पर थोड़ी मात्रा में तीन बार यह जल लेकर अपने ईष्टदेव, सभी देवतागण तथा नवग्रहों का ध्यान करते हुए उसे ग्रहण किया जाना चाहिए। यह जल आचमन का जल कहलाता है। जल लेकर तीन बार निम्न मंत्र का उच्चारण करते हुए जल ग्रहण करें-
ॐ केशवाय नम:
ॐ नाराणाय नम:
ॐ माधवाय नम:
ॐ हृषीकेशाय नम:, इस मंत्र के द्वारा अंगूठे से मुख पोछ लें।
ॐ गोविंदाय नमः यह मंत्र बोलकर हाथ धो लें।
उपरोक्त विधि ना कर सकने की स्थिति में केवल दाहिने कान के स्पर्श मात्र से ही आचमन की विधि की पूर्ण मानी जाती है।
आचमन करते समय हथेली में 5 तीर्थ बताए गए हैं-
1. देवतीर्थ
2. पितृतीर्थ
3. ब्रह्मातीर्थ
4. प्रजापत्यतीर्थ
5. सौम्यतीर्थ
कहा जाता है कि अंगूठे के मूल में ब्रह्मातीर्थ, कनिष्ठा के मूल प्रजापत्यतीर्थ, अंगुलियों के अग्रभाग में देवतीर्थ, तर्जनी और अंगूठे के बीच पितृतीर्थ और हाथ के मध्य भाग में सौम्यतीर्थ होता है, जो देवकर्म में प्रशस्त माना गया है। आचमन हमेशा ब्रह्मातीर्थ से करना चाहिए। आचमन करने से पहले अंगुलियां मिलाकर पवित्र जल से बिना शब्द किए 3 बार आचमन करने से महान फल मिलता है। आचमन हमेशा 3 बार करना चाहिए।
आचमन करते हुए दिशाओं का ध्यान रखना बेहद आवश्यक है। आचमन करते हुए आपका मुख सदैव ही उत्तर, ईशान या पूर्व दिशा की ओर होना चाहिए। अन्य दिशाओं की ओर मुख कर किया हुआ आचमन निरर्थक है और अपना उद्येश्य पूरा नहीं करता।
आचमन के बारे में स्मृति ग्रंथ में लिखा है कि
प्रथमं यत् पिबति तेन ऋग्वेद प्रीणाति।
यद् द्वितीयं तेन यजुर्वेद प्रीणाति।
यत् तृतीयं तेन सामवेद प्रीणाति।
आचमन से मिलने वाला फल....
1 . पहला लाभ : इससे हृदय की शुद्धि होती है।
2 . दूसरा लाभ : इससे मन निर्मल और शुद्ध होता है।
3. तीसरा लाभ : इससे पूजा का फल दोगुना मिलता है।
4. चौथा लाभ : जो विधिपूर्वक आचमन करता है, वह पवित्र हो जाता है।
5. पांचवां लाभ : आचमन करने वाला सत्कर्मों का अधिकारी होता है।
पहले आचमन से ऋग्वेद और द्वितीय से यजुर्वेद और तृतीय से सामवेद की तृप्ति होती है। आचमन करके जलयुक्त दाहिने अंगूठे से मुंह का स्पर्श करने से अथर्ववेद की तृप्ति होती है। आचमन करने के बाद मस्तक कोअभिषेक करने से भगवान शंकर प्रसन्न होते हैं। दोनों आंखों के स्पर्श से सूर्य, नासिका के स्पर्श से वायु और कानों के स्पर्श से सभी ग्रंथियां तृप्त होती हैं। माना जाता है कि ऐसे आचमन करने से पूजा का दोगुना फल मिलता है।
मनुस्मृति में वर्णित आचमन के महत्व के अनुसार पूजा के अलावा दिन में कई बार कुछ विशेष क्रियाओं से पूर्व आचमन करने का विधान बताया गया है। इसमें नींद से जागने के बाद, भोजन से पूर्व, छींक आने के पश्चात, योग-ध्यान अथवा अध्ययन से पूर्व तथा अगर गलती से कभी असत्य वचन बोलें या कोई गलत कार्य हो जाए तो उसके पश्चात आचमन द्वारा शुद्धि अवश्य की जानी चाहिए।
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धर्मशील व्यक्ति ,,,,,,,
जिमि सरिता सागर महँ जाहीं l
जद्यपि ताहि कामना नाहीं ll
तिमि सुख सम्पति बिनहिं बुलाये l
धर्मशील पहँ जाइ सुहाये ll
जैसे सरिता (नदी ) उबड-खाबड़, पथरीले स्थानों को पार करते हुए पूर्ण रूपेण निष्काम भाव से समुद्र में जा मिलती है, उसी प्रकार धर्म-रथ पर आसीन मनुष्य के पास उसके न चाहते हुए भी समस्त सुख-सम्पत्ति, रिद्धियाँ-सिद्धियाँ स्वत: आ जाती हैं, सत्य तो यह है कि वे उसकी दासिता ग्रहण करने के लिए लालायित रहती है !
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गौ सेवा एवं गौ रक्षा ,,,,,,,,
भगवान हंस कहते हैं- हे ब्राह्मणों ! !!! गौओं के शरीर को खुजलाने, उनके शरीर के कीटाणुओं कोदूर करने से मनुष्य अपने समस्त पापों को धो डालता हैं ।
श्लोक ,,,,,,
गवां कण्डूयकान्मत्र्यः सर्वपापं व्यपोहति ।
तासां ग्रास प्रदानेन महत्पुण्यमवाप्नुयात् ।।
(विष्णुधर्मोत्तर पुराण)
अदिति ,,,,,,,
हरे हरे तिनकों पर अमृत-घट छलकाती गौ माता,
जब-जब कृष्ण बजाते मुरली लाड़ लड़ाती गौ माता।
तुम्ही धर्म हो, तुम्ही सत्य हो, पृथ्वी-सा सब सहती हो,
मोक्ष न चाहे ऐसे बंधन में बँधकर तुम रहती हो।
प्यासे जग में सदा दूध की नदी बहाती गौ माता,
जब-जब कृष्ण बजाते मुरली लाड़ लड़ाती गौ माता।।
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गाय गोलोक की एक अमूल्य निधि है, जिसकी रचना भगवान ने मनुष्यों के कल्याणार्थ आशीर्वाद रूप से की है। अत: इस पृथ्वी पर गोमाता मनुष्यों के लिए भगवान का प्रसाद है। भगवान के प्रसादस्वरूप अमृतरूपी गोदुग्ध का पान कर मानव ही नहीं अपितु देवगण भी तृप्त होते हैं। इसीलिए गोदुग्ध को ‘अमृत’ कहा जाता है। गौएं विकाररहित दिव्य अमृत धारण करती हैं और दुहने पर अमृत ही देती हैं। वे अमृत का खजाना हैं। सभी देवता गोमाता के अमृतरूपी गोदुग्ध का पान करने के लिए गोमाता के शरीर में सदैव निवास करते हैं। ऋग्वेद में गौ को ‘अदिति’ कहा गया है। ‘दिति’ नाम नाश का है और ‘अदिति’ अविनाशी अमृतत्व का नाम है। अत: गौ को ‘अदिति’ कहकर वेद ने अमृतत्व का प्रतीक बतलाया है।
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बहुत कुछ सीखा और जाना
पर खाक सीखा और जाना
जब, उसी को न जाना,
जिसके पास है जाना
उसे जानने के लिए पढ़े ,,,,,,,
देवलोक गौशाला एवं देवलोक अग्निहोत्र
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" जीवन का सत्य आत्मिक कल्याण है ना की भौतिक सुख !"
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"एक माटी का दिया सारी रात अंधियारे से लड़ता है,
तू तो प्रभु का दिया है फिर किस बात से डरता है..."
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हे मानव तू उठ और सागर (प्रभु ) में विलीन होने के लिए पुरुषार्थ कर ,,,,,
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,,,,सच्चे संतो की वाणी से अमृत बरसता है , आवश्यकता है ,,,उसे आचरण में उतारने की ....
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: सर्वदेवमयी यज्ञेश्वरी गौमाता को नमन, जय गौमाता की 🙏👏🌹🌲🌿🌹:
शरीर परमात्मा का दिया हुआ उपहार है ! चाहो तो इससे " विभूतिया " (अच्छाइयां / पुण्य इत्यादि ) अर्जित करलो चाहे घोरतम " दुर्गति " ( बुराइया / पाप ) इत्यादि !
परोपकारी बनो एवं प्रभु का सानिध्य प्राप्त करो !
प्रभु हर जीव में चेतना रूप में विद्यमान है अतः प्राणियों से प्रेम करो !
शाकाहार अपनाओ , करुणा को चुनो !
जय गौमाता की 🙏🚩☘️🙏🚩☘️