. (बड़ों की हँसी उड़ाने का दुष्परिणाम)
एक बार की बात है, कैलास के शिव-सदन में ब्रह्माजी शिवजी के पास बैठे थे। उसी समय वहाँ देवर्षि नारद पहुँचे। उनके पास एक अतिशय सुन्दर फल था। जो देवर्षि ने उमानाथ के कर-कमलों में अर्पित कर दिया।
फल को पिता के हाथ में देखकर गणेश और कुमार दोनों बालक उसे आग्रह पूर्वक माँगने लगे। तब शिव ने ब्रह्माजी से पूछा–‘ब्रह्मन् ! फल एक ही है और इसे गणेश एवं कुमार दोनों चाहते हैं; आप बतायें, इसे किसे दूँ ?’
चतुर्मुख ने उत्तर दिया–‘प्रभो ! छोटे होने के कारण इस एकमात्र फल के अधिकारी तो षडानन ही हैं।’
गंगाधर ने फल कुमार को दे दिया। किन्तु पार्वती नन्दन गणेश सृष्टिकर्ता ब्रह्मा पर कुपित हो गये।
लोकपितामह ने अपने भवन पहुँचकर सृष्टि-रचना का प्रयत्न किया तो गजवक्त्र ने अद्भुत विघ्न उत्पन्न कर दिया। वे अत्यन्त उग्ररूप में विधाता के सम्मुख प्रकट हुए। विघ्नेश्वर के भयानकतम स्वरूप को देखकर विधाता भयभीत होकर काँपने लगे।
गजानन की विकट मूर्ति एवं ब्रह्मा का भय और कम्प देखकर चन्द्रदेव अपने गणों के साथ हँस पड़े।
चन्द्रमा को हँसते देख गजमुख को बड़ा क्रोध आया। उन्होंने चन्द्रदेव को तुरन्त शाप दे दिया–‘चन्द्र ! अब तुम किसी के देखने योग्य नहीं रह जाओगे और यदि किसी ने तुम्हें देख लिया तो वह पाप का भागी होगा।
अब तो चन्द्रमा श्रीहत, मलिन एवं दीन होकर अत्यन्त दु:खित हो गये।
सुधाकर के अदर्शन से देवगण भी दुःखित हुए। अग्नि और इन्द्र आदि देवगण देवदेव गजानन के समीप पहुँचकर उनकी भक्ति पूर्वक स्तुति करने लगे।
देवताओं के स्तवन से प्रसन्न होकर गजमुख ने कहा–‘देवताओ ! मैं तुम्हारी स्तुति से सन्तुष्ट हूँ। वर माँगो, मैं उसे अवश्य पूर्ण करूँगा।’
देवता बोले–‘प्रभो ! आप चन्द्रमा पर अनुग्रह करें, हमारी यही कामना है।’
गणेशजी ने कहा–‘देवताओ ! मैं अपना वचन मिथ्या कैसे कर दूँ ? पर शरणागत का त्याग भी सम्भव नहीं।’ अतः तुम लोग मेरी बात सुनो–'जो जान कर या अनजान में ही भाद्र-शुक्ल-चतुर्थी को चन्द्र का दर्शन करेगा, वह अभिशप्त होगा। उसे अधिक दु:ख उठाना पड़ेगा।’
परमप्रभु द्विरदानन के वचन सुन देवगण अत्यन्त मुदित हुए। उन्होंने पुनः प्रभु-चरणों में प्रणाम किया। तदनन्तर वे चन्द्रमा के पास पहुँचे और उनसे कहा–‘चन्द्र ! गजमुख पर हँसकर तुमने अपनी मूढ़ता का ही परिचय दिया है। तुमने परम प्रभु का अपराध किया और त्रैलोक्य संकट ग्रस्त हो गया। हम लोगों ने त्रैलोक्य नायक परब्रह्मस्वरूप सर्वगुरु गजानन प्रभु को बड़े यत्न से सन्तुष्ट किया। इस कारण उन दयामय ने तुम्हें वर्ष में केवल एक दिन भाद्र-शुक्ल चतुर्थी को अदर्शनीय रहने का वचन देकर अपना शाप अत्यन्त सीमित कर दिया। तुम भी उन करुणामय की शरण लो और उनकी कृपा से शुद्ध होकर यश प्राप्त करो।’
देवेन्द्र ने सुधांशु को गजानन के एकाक्षरी मन्त्र का उपदेश किया और फिर देवगण वहाँ से चले गये।
सुधाकर शुद्ध हृदय से परम प्रभु गजमुख की शरण हुए। वे पुण्यतोया जाह्नवी के दक्षिण तट पर गजानन का ध्यान करते हुए उनके एकाक्षरी मन्त्र का जप करने लगे। चन्द्रदेव ने गणेश को सन्तुष्ट करने के लिये बारह वर्ष तक कठोर तप किया। इससे आदिदेव गजानन प्रसन्न हुए और उन परम प्रभु गजानन के वर-प्रभाव से सुधांशु पूर्ववत् तेजस्वी, सुन्दर एवं वन्द्य हो गये।
इस तरह यह पौराणिक घटना यह सन्देश देती है कि अपने से बड़ों का उपहास करना अमंगलकारी होता है।
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– [गणेशपुराण, उपासनाखण्ड]
कल्याण (९३।८)
ॐ गं गणपतये नमः
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